कौषीतकि उपनिषद् बनाम वेदांत: क्या ब्रह्म अन्यायी है ?

कौषीतकी उपनिषद के एक श्लोक में वर्णित है:
“एष ह्येवैनं साधुकर्म कारयति तं यमेभ्यो लोकेभ्यो उन्निनीषत एष उ एवैनमसाधु कर्म कारयति तं यमधो निनीषते।” (अध्याय 3 मन्त्र 9)

इसका अर्थ यह है कि ब्रह्म उस व्यक्ति से शुभ कर्म कराते हैं जिसे वे ऊर्ध्व लोकों की ओर उन्नति कराना चाहते हैं, और वही ब्रह्म उस व्यक्ति से अशुभ कर्म कराते हैं जिसे अधोलोक में गिराना चाहते हैं। पहली नज़र में यह श्लोक ब्रह्म के न्यायसंगत और स्वतंत्रता देने वाले स्वभाव के विपरीत प्रतीत होता है। कैसे ब्रह्म, जो सर्वशक्तिमान और न्याय के प्रतीक माने जाते हैं, किसी व्यक्ति को अशुभ कर्म में प्रवृत्त कर सकते हैं?

इस विषय को समझने के लिए हमारा यह वीडियो द्रष्टव्य है –

अन्य ग्रंथों के सहयोग की अपेक्षा

कई छद्म-बुद्धिजीवी लोगों को यह ज्ञान बांटते हैं की केवल वेदांत से ही सत्य समझा जा सकता है और स्मृतियों की कोई आवश्यकता ही नहीं है | लेकिन ये मन्त्र श्रुति का ही है क्योंकि कौषीतकि उपनिषद् ऋग्वेद का उपनिषद् है | कोई केवल इस एक मन्त्र को पकड़ के बैठ जाए तो वह अकर्मण्य हो जायेगा | इसलिए हमें अन्य ग्रंथों से इसे समझना होगा !

ब्रह्म का स्वरूप और कर्म का सिद्धांत

वेदांत दर्शन और उपनिषदों में, ब्रह्म को अद्वैत और समदर्शी बताया गया है। ब्रह्म के इस स्वरूप को समझने के लिए वेदांत दर्शन के सूत्रों का सहारा लेना अनिवार्य है।

तो सबसे पहले वेदांत दर्शन के दूसरे अध्याय से यह सूत्र –

कर्ता शास्त्रार्थवत्त्वात्।। वेदांत दर्शन (ब्रह्म सूत्र) 2/3/33।।

इस सूत्र में जीवात्मा को कर्त्ता बताया गया है | इसके भाष्य में प्रातः स्मरणीय आचार्यों ने प्रश्नोपनिषद के एक मन्त्र को प्रमाणस्वरुप उपस्थित किया है –

एष हि द्रष्टा स्प्रष्टा श्रोता घ्राता रसयिता मन्ता बोद्धा कर्ता विज्ञानात्मा पुरुषः।

यह जो द्रष्टा है, स्प्रष्टा है, श्रोता है, घ्राता (सूँघने वाला) है, रस ग्रहण करने वाला है, मनसा अनुभव करने वाला है, बोध करने वाला है, कर्ता है |

प्रश्नोपनिषद 4/9

लेकिन अगर यह जीवात्मा कर्त्ता है तो क्या अपने बल पर ? इस पर एक सूत्र और बनाया गया –

परात्तु तच्छ्रुतेः।। वेदांत दर्शन (ब्रह्म सूत्र) 2/3/41।।

इस सूत्र में यह कहा गया है कि जीव का कर्त्तापन ब्रह्म के कारण ही है !

इन सूत्रों की व्याख्या में प्रातः स्मरणीय आदि जगद्गुरु भगवान् शंकराचार्य बृहदारण्यक उपनिषद् का यह मन्त्र उद्धृत करते हैं –

यो विज्ञाने तिष्ठन्विज्ञानादन्तरो यं विज्ञानं न वेद यस्य विज्ञान शरीरं यो विज्ञानमन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः॥ बृहदारण्यक उपनिषद् 3/7/22

अर्थात ब्रह्म ही जीवात्मा के भीतर रहता है और उसका नियमन करता है |
यही बात विष्णु पुराण (अंश 1 अध्याय 17) में भी कही गयी है –


यही बात गीता भी कहती है –

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।

भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।। गीता 18/61 ।।

रामचरितमानस भी यही कहती है –
उर प्रेरक रघुबंश बिभूषन ||
होइहि सोइ जो राम रचि राखा |
को करि तर्क बढ़ावै साखा ||

इन सब सन्दर्भों से तो मुश्किल और ज्यादा बढ़ गयी जान पड़ती है | क्योंकि अगर ऐसा है तो फिर कर्म करने भी आवश्यकता क्या ? फिर तो वही करना चाहिए –
अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम |
दास मलूका कह गए सबके दाता राम ||

समाधान की पहली किरण – ब्रह्म न्यायकारी है

अब समाधान की तरफ चलते हैं | वेदांत दर्शन में ब्रह्म को न्यायकारी कहा गया है और यह भी कहा गया है कि उस पर अन्यायी होने का दोष नहीं लगता क्योंकि वह तो कर्म के अनुसार फल देता है !

वैषम्यनैर्घृण्ये न सापेक्षत्वात्तथाहि दर्शयति।। वेदांत दर्शन (ब्रह्म सूत्र) 2/1/34 ।।

इसके भाष्य में आदिजगद्गुरु भगवान् शंकराचार्य बृहदारण्यक उपनिषद् का यह मन्त्र भी उद्धृत करते हैं –

पुण्यो वै पुण्येन कर्मणा भवति पापः पापेनेति ॥ बृहदारण्यक उपनिषद् 3/2/13 ॥

गीता (14/16) भी यही कहती है –

और आगे गीता (16/18-19) में भी देखिये –

यहाँ पर संदेह खड़ा होता है कि अगर ऐसी बात है तो फिर सृष्टि के आरम्भ में हमारे पहले जन्म में किस कर्म का फल मिला जो पहला जन्म मिला ?

इस पर एक सूत्र और बनाया गया वेदांत दर्शन में –


तो आचार्यगण कहते हैं कि वो सृष्टि के आरम्भ में पिछले कल्प के कर्मानुसार ही सृष्टि हुई थी –

सू॒र्या॒च॒न्द्र॒मसौ॑ धा॒ता य॑थापू॒र्वम॑कल्पयत् । ऋग्वेद, मण्डल 10/ सूक्त 190 / मन्त्र 3

और जीवात्मा अनादि है इसलिए पहला जन्म बनता नहीं है – अनंत काल से ऐसा ही चला आ रहा है |

इस पर एक सूत्र और बनाया –

उपपद्यते चाप्युपलभ्यते च।। वेदांत दर्शन (ब्रह्म सूत्र) 2/1/36 ।।

इसके भाष्य में आदिजगद्गुरु भगवान् शंकराचार्य कठोपनिषद का यह प्रमाण उद्धृत करते हैं –

अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥ कठोपनिषद् अध्याय 1 वल्ली 2 मन्त्र 18

जीवात्मा अनादि है इससे पहला जन्म नहीं बनता |

इस प्रसंग का उपसंहार करते हुए एक सूत्र में यह कहा जाता है –

सर्वधर्मोपपत्तेश्च।। वेदांत दर्शन (ब्रह्म सूत्र) 2/1/37 ।।

अर्थात इन सब सूत्रों से ब्रह्म के न्यायकारी होना सिद्ध हो जाता है |
तो इतना तो सिद्ध होता है की ब्रह्म न्यायकारी है – लेकिन कौषीतकि उपनिषद् के उस मन्त्र का ब्रह्म के न्यायकारिता से समन्वय कैसे होगा ?

समाधान – केन उपनिषद का योगदान

इन समस्त उलझनों के समाधान के लिए ब्रह्मसूत्र में एक सूत्र बनाया गया –

कृतप्रयत्नापेक्षस्तु विहितप्रतिषिद्धावैयर्थ्यादिभ्यः।। वेदांत दर्शन (ब्रह्म सूत्र) 2/3/42 ।।

अर्थात ब्रह्म जीव को कर्म करने की शक्ति प्रदान करता है इसलिए सर्वथा निर्दोष है |

इसपर आचार्यों ने अपने भाष्य में केनोपनिषद के ये मन्त्र उद्धृत किये हैं जिससे सारी समस्या हल हो जाती है –

केनोपनिषद खंड 1 मन्त्र 4-8

कर्म करने को हम स्वतंत्र हैं । और फल भी हमको भोगना पड़ेगा |

जो जस करइ सो तस फल चाखा||

इस परिप्रेक्ष्य में, कौषीतकी उपनिषद का श्लोक यह इंगित करता है कि ब्रह्म केवल चेतना और ऊर्जा का स्रोत हैं, परंतु व्यक्ति को स्वतंत्रता और अधिकार देते हैं। यही कारण है कि व्यक्ति अपने कार्यों के लिए स्वयं उत्तरदायी होता है।

गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं, “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।” व्यक्ति का अधिकार केवल कर्म करने पर है, फल पर नहीं। ब्रह्म न तो किसी को रोकते हैं, न ही किसी को मजबूर करते हैं। कर्मफल का विधान उसके अपने किए गए कार्यों पर आधारित होता है।

निष्कर्ष

कौषीतकी उपनिषद का यह श्लोक हमें समझाता है कि ब्रह्म हमारे कार्यों में “निर्णायक” नहीं हैं; वे मात्र साक्षी और आधार हैं। जीव को अपने संस्कारों और अपने कर्मों के अनुरूप फल मिलता है। यह श्लोक यह दर्शाता है कि ब्रह्म अपने सभी सृजन की स्वतंत्रता का आदर करते हैं और उन्हें उनके मार्ग में कर्म करने की प्रेरणा देते हैं, परंतु ब्रह्म स्वयं किसी भी कर्म में सीधे हस्तक्षेप नहीं करते।

इस प्रकार, वेदांत के दृष्टिकोण से यह स्पष्ट होता है कि ब्रह्म का प्रत्येक व्यक्ति के कर्मों से संबंध केवल चेतना और ऊर्जा का आधार देना है। इस समझ से कौषीतकी उपनिषद के इस श्लोक में वर्णित न्याय और स्वतंत्रता के बीच का सामंजस्य प्राप्त किया जा सकता है।

वेदमंत्रों का अर्थ समझने के लिए अनेक ग्रंथों को पढ़ना पड़ता है, तभी जाकर रहस्य खुलते हैं | आशा है आपका ज्ञानवर्द्धन हुआ होगा |

सन्दर्भ ग्रन्थ

इस प्रसंग में आये समस्त ग्रन्थ अनेक टीकाओं के साथ आप यहाँ से निःशुल्क डाऊनलोड कर सकते हैं –

  1. उपनिषद् संग्रह
  2. वेदांत दर्शन (ब्रह्म सूत्र)
  3. ऋग्वेद
  4. गीता
  5. रामचरितमानस
  6. विष्णु पुराण