अस्य = इस जगत् के; जन्मादि = जन्म आदि (उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय); यत: = जिससे (होते हैं, वह ब्रह्म है)|
व्याख्या:
जिस ब्रह्म की पहले सूत्र में जिज्ञासा की गयी है उसके बारे में बताते हैं| संसार की सृष्टि, उसकी स्थिति और उसका प्रलय ब्रह्म से ही होता है | इस विषय में तैत्तिरीय उपनिषद् कहती है:
यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते।येन जातानि जीवन्ति।
यत् प्रयन्त्यभिसंविशन्ति। तद्विजिज्ञासस्व। तद् ब्रह्मेति।
“ये समस्त प्राणी कहाँ से उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होकर ये किसके द्वारा जीवित रहते हैं तथा तत्पश्चात् ये किसमें समाविष्ट हो जाते हैं, उसे तुम जानने का प्रयास करो, क्योंकि वह ही है ‘ब्रह्म’।”
(भृगु वल्ली, अनुवाक १)
यहाँ पर संदेह उठता है कि उपनिषदों में ब्रह्मके बारे में कहा गया है कि वा अकर्ता, अभोक्ता, असंग, अव्यक्त, अगोचर, अचिंत्य, निरगुन, निरंजन तथा निर्विशेष है | फिर यहाँ इस सूत्र में उसे जगत् के उत्पत्ति आदि का कर्ता कैसे बताया गया?
समाधान: गीता में कहा गया है कि वा समस्त जगत् का करता होते हुए भी अकर्ता है :
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।
“मेरे द्वारा गुणों और कर्मोंके विभागपूर्वक चारों वर्णोंकी रचना की गयी है। उस(सृष्टिरचना आदि) का कर्ता होनेपर भी मुझ अव्यय परमेश्वरको तू अकर्ता जान।”
(गीता , अध्याय ४, श्लोक १३)
वह सर्वशक्तिमान और विचित्र शक्तियों वाला है| श्वेताश्वतर उपनिषद् में कहा है:
न तस्य कार्यं करणंच विद्यते न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते।
परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञान-बल-क्रिया च।।
उन परब्रह्म परमात्माकी कोई भी क्रिया प्राकृत नहीं होती, क्योंकि उनका कोई भी करण-हस्त पादादि इन्द्रियाॅ प्राकृत नहीं होती। वे अप्राकृत शरीरसे एकही समय सब जगह विराजमान रहते हैं। इसलिए उनसे बड़ा तो दूर रहे उनके समान भी कोई दूसरा नहीं है।
उस परमेश्वरकी अलौकिकी शक्ति नाना प्रकारकी सुनी जाती है |
(श्वे. उ. 6/8)
उपनिषद् और भी बताती है कि वह सर्वगुण संपन्न होते हुए भी निर्गुण है | एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा।
कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च॥
“उस ‘एकमेव देव’ का ही अस्तित्व है, प्रत्येक प्राणी में ‘वही’ मूढ रूप से छिपा हुआ है क्योंकि ‘वही’ सर्वव्यापी एवं समस्त प्राणियों का ‘अन्तरात्मा’ है, ‘वह’ सभी कर्मों का अध्यक्ष-स्वामी है, एवं सभी जीवसत्ताओं का आवास है। ‘वही’ सकल जगत-व्यापारों का ‘महान् साक्षी’ है जो विचारों में परस्पर सम्बद्धता लाता है, ‘वह’ है ‘निरपेक्ष’ एवं निर्गुण, जिसमें न कोई मनोभाव है न कोई गुण है।”
वह समस्त विशेषणों से युक्त होकर भी निर्विषेष है :
एष सर्वेश्वरः एष सर्वज्ञ एषोऽन्तर्याम्येष योनिः सर्वस्य प्रभवाप्ययौ हि भूतानाम् ॥
यह ‘सर्वेश्वर’ है, यह ‘सर्वज्ञ’ है, यह है ‘अन्तरात्मा’-अन्तर्यामी, यह समस्त विश्व की ‘योनि’ अर्थात् जन्म देने वाला ‘गर्भ’ है, यह समस्त प्राणियों की ‘उत्पत्ति’ एवं उनका ‘प्रलय’ है।
(मांडूक्योपनिषद 6)
नान्तःप्रज्ञं न बहिष्प्रज्ञं नोभयतःप्रज्ञं न प्रज्ञानघनं न प्रज्ञं नाप्रज्ञम्।
अदृष्टमव्यवहार्यमग्राह्यमलक्षणमचिन्त्यमव्यपदेश्यमेकात्मप्रत्ययसारं प्रपञ्चोपशमं शान्तं शिवमद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः ॥
“वह न अन्तःप्रज्ञ है न बहिष्प्रज्ञ है, न उभय-प्रज्ञ अर्थात् अन्तः एवं बहिष्प्रज्ञ एक साथ है, न वह प्रज्ञान-घन है, न प्रज्ञ (ज्ञाता) है, न अप्रज्ञ (अज्ञाता)। वह जो अदृष्ट है, अव्यवहार्य है, अग्राह्य है, अलक्षण है, अचिन्त्य है, अव्यपदेश्य अर्थात् अनिर्देश्य है, ‘आत्मा’ के ऐकान्तिक अस्तित्व का बोध ही जिसका सार है, ‘जिसमें’ समस्त प्रपञ्चात्मक जगत् का विलय हो जाता है, जो ‘पूर्ण शान्त’ है, जो ‘शिवम्’ है-मंगलकारी है, और जो ‘अद्वैत’ है, ‘उसे’ ही चतुर्थ (पाद) माना जाता है; ‘वही’ है ‘आत्मा’, एकमात्र ‘वही’ ‘विज्ञेय’ (जानने योग्य तत्त्व) है।”
(मांडूक्योपनिषद 7)
इस प्रकार वह परब्रह्म परमेश्वर विरोधी धर्मो का आश्रय है | अतएव यहाँ किसी शंका के लिए कोई स्थान नहीं है |