दिल्ली विश्वविद्यालय में लाइव पाखंड: नास्तिकता और स्वघोषित आचार्य प्रशांत का खतरनाक खेल

✍️ प्रस्तावना: पाखंड का मंच

दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे प्रतिष्ठित संस्थान का नाम सुनते ही आम जनता के मन में एक छवि उभरती है — ज्ञान, शोध और प्रगतिशील विचारों का केंद्र। लेकिन जब इसी मंच पर तथाकथित “स्वघोषित आचार्य” को बुलाया जाता है, और वहाँ से छात्रों को यह संदेश दिया जाता है कि “आस्था का कोई महत्व नहीं, जो मानता है वह पत्थर युग में है” — तब यह केवल विचारों की स्वतंत्रता का मामला नहीं रह जाता, बल्कि पूरे समाज और शिक्षा जगत की गंभीर जिम्मेदारी पर प्रश्नचिह्न खड़ा करता है।

Video Reference: Is astrology spiritual or scientific? || Acharya Prashant, with DU (2023)

स्वघोषित आचार्य अपने आप को नास्तिक तो नहीं कहते – लेकिन उनकी विचारधाराएं नास्तिकता से बिलकुल मेल खाती हैं | दरअसल नास्तिक लोग भी प्रायः इसी प्रकार के तर्क करते हैं !

आज नास्तिकता के नाम पर जो प्रचार हो रहा है, वह वास्तव में तर्कशीलता नहीं बल्कि आस्था-विरोधी पाखंड है। और यही पाखंड दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे संस्थानों के मंच से लाइव प्रसारित हो रहा है। यह केवल धार्मिक या दार्शनिक समस्या नहीं है, बल्कि एक मानसिक और सामाजिक खतरा भी है, क्योंकि ऐसे विचार छात्रों के मन में अस्थिरता और भ्रम पैदा करते हैं।

इस प्रस्तावना में सवाल साफ़ है — जब विज्ञान और गणित तक अधूरी सच्चाइयों और अप्रमाणित अनुमानों (Conjectures) पर खड़े हैं, तो आस्था को “अवैज्ञानिक” कहकर नकारना क्या सच में वैज्ञानिक ईमानदारी है? या यह महज़ पाखंड का नया रूप है, जहाँ शिक्षा के नाम पर छात्रों को असली ज्ञान से काटकर निहिलिज़्म की तरफ धकेला जा रहा है?

इस विषय पर हमारा यह वीडियो द्रष्टव्य है :

✍️ गणित भी आस्था पर खड़ा है

नास्तिक अक्सर दावा करते हैं कि “हम तो केवल प्रमाण पर विश्वास करते हैं।” लेकिन ज़रा गहराई से देखा जाए तो स्वयं गणित, जिसे तर्क और प्रमाण का शिखर माना जाता है, वह भी कई जगहों पर सिर्फ़ आस्था पर ही टिका हुआ है।

उदाहरण के लिए, गोल्डबाख अनुमान कहता है कि हर सम संख्या दो अभाज्य संख्याओं (prime numbers) के योग से व्यक्त की जा सकती है। यह अनुमान पिछले तीन सौ सालों से गणितज्ञों द्वारा जाँचा जा रहा है, और अरबों-खरबों संख्याओं तक सही पाया गया है। लेकिन अब तक इसका कोई अंतिम प्रमाण नहीं मिला। फिर भी गणितज्ञ इसे सच मानकर आगे की थ्योरियाँ और गणनाएँ करते हैं। क्या यह आस्था नहीं है?

इसी तरह कोलात्ज़ अनुमान (3x+1) को लें। नियम इतना आसान है कि बच्चा भी समझ ले:

  • यदि संख्या सम है, तो उसे 2 से भाग दो।
  • यदि विषम है, तो उसे 3 से गुणा कर 1 जोड़ दो।
    आश्चर्य की बात है कि कोई भी संख्या लें, अंततः यह नियम उसे 1 पर पहुँचा देता है। अरबों बार कंप्यूटर इसे परख चुके हैं, कभी असफल नहीं हुए। लेकिन फिर भी आज तक इसका कोई प्रमाण नहीं है। गणितज्ञ और वैज्ञानिक फिर भी इसे “सत्य” मानकर पढ़ाते और प्रयोग करते हैं।

और फिर आता है गोडेल का अपूर्णता प्रमेय (Gödel’s Incompleteness Theorem), जिसने साबित कर दिया कि किसी भी तर्क-तंत्र (logical system) में ऐसी सच्चाइयाँ हमेशा रहेंगी जिन्हें उस तंत्र के भीतर कभी सिद्ध नहीं किया जा सकता। यानी गणित भी अपनी गहराई में जाकर कहता है — “पूर्ण प्रमाण संभव नहीं।”

इससे साफ़ हो जाता है कि गणित और विज्ञान में भी कुछ मान्यताएँ, अनुमानों और विश्वास पर ही आगे बढ़ना पड़ता है। जब स्वयं गणित आस्था से चलता है, तो आस्था को “अवैज्ञानिक” कहकर नकारना कहाँ की वैज्ञानिकता है? दरअसल यह विज्ञान का अपमान और पाखंड का शुद्ध उदाहरण है।

✍️ नास्तिकता का पाखंड

नास्तिकों की सबसे बड़ी दलील यही होती है कि “हम केवल वही मानते हैं जिसका प्रमाण हो।” सुनने में यह बात आकर्षक और तार्किक लगती है, लेकिन जब गहराई से देखा जाए तो यह महज़ बौद्धिक छलावा है।

गणितज्ञ भी अप्रमाणित अनुमानों (conjectures) पर भरोसा करते हैं। वैज्ञानिक भी ऐसी थ्योरियों के आधार पर आगे बढ़ते हैं जिनका पूर्ण प्रमाण उपलब्ध नहीं है। लेकिन जब बात ईश्वर, आत्मा, पुनर्जन्म या भक्ति की आती है, तो वही नास्तिक अचानक कह देते हैं कि “हम बिना प्रमाण नहीं मानते।” यह असल में दोहरा मापदंड है — एक ही सिद्धांत को विज्ञान और गणित के लिए स्वीकार करना और आध्यात्मिकता के लिए नकार देना।

यही कारण है कि नास्तिकता को जब गहराई से परखा जाए, तो वह किसी गहन तर्क पर नहीं बल्कि अहंकार और पूर्वाग्रह पर टिकी नज़र आती है। प्रमाण की मांग का यह दिखावा वस्तुतः faith rejection की बीमारी है। नतीजा यह होता है कि नास्तिक खुद को तर्कशील समझते हैं, लेकिन असलियत में वे उन ही धारणाओं पर भरोसा कर रहे होते हैं जिन्हें वे धर्म और आस्था के नाम पर दूसरों से छीनना चाहते हैं।

✍️ स्वघोषित आचार्य का खतरनाक खेल

जब कोई सामान्य व्यक्ति नास्तिकता का प्रचार करता है, तो उसकी पहुँच सीमित होती है। लेकिन जब स्वयं को “आचार्य” कहने वाला व्यक्ति विश्वविद्यालयों और सार्वजनिक मंचों पर बोलता है, तो उसकी बातों का असर कहीं ज़्यादा गहरा और खतरनाक हो जाता है।

दिल्ली विश्वविद्यालय के मंच पर यही हुआ। यहाँ आस्था को “पाषाण युग की मानसिकता” बताकर छात्रों को यह संदेश दिया गया कि विश्वास रखने वाले लोग backward हैं। यह न केवल धार्मिक भावनाओं का अपमान है, बल्कि उन युवाओं का भी मानसिक शोषण है जो अपने जीवन के सबसे संवेदनशील मोड़ पर हैं और अपने अस्तित्व की तलाश कर रहे हैं।

इसके अलावा, निजी सत्संग और लाइव शो में वही आचार्य एक अलग चेहरा दिखाते हैं। वहाँ वे खुलकर निहिलिज़्म का प्रचार करते हैं — “जीवन का कोई अर्थ नहीं है, कोई करुणा बरसाने वाला भगवान नहीं है। वेदांत का सम्बन्ध निहिलिज्म से है !” यह विचारधारा छात्रों और युवाओं को निराशा, अवसाद और मानसिक शून्यता की ओर धकेल सकती है। यह कोई दार्शनिक बहस नहीं बल्कि सीधा मानसिक स्वास्थ्य का प्रश्न है।

Video Reference: डॉक्टर की दवा नहीं, बाबाजी की बूटी चाहिए || आचार्य प्रशांत (2024)

यही असली खतरनाक खेल है — सार्वजनिक मंच पर आस्था का अपमान और निजी मंच पर निहिलिज़्म का प्रचार। एक तरफ “विश्वास मत करो”, और दूसरी तरफ “जीवन का कोई अर्थ नहीं।” दोनों ही संदेश मिलकर छात्रों को स्थिरता और जीवन-ऊर्जा से काटते हैं। इस दोहरे खेल का शिकार सबसे पहले वही युवा बनते हैं जिनके लिए यह शिक्षा और मार्गदर्शन जीवन का आधार होना चाहिए था।

✍️ निहिलिज़्म और मानसिक स्वास्थ्य

निहिलिज़्म (Nihilism) केवल एक दार्शनिक बहस नहीं है; यह सीधे मानसिक स्वास्थ्य पर प्रहार करता है। “जीवन का कोई अर्थ नहीं” जैसे विचार युवाओं के मन में गहरी अस्थिरता और निराशा बोते हैं। यही वह खतरनाक रास्ता है जिसे नास्तिकता और तथाकथित आचार्य खुलेआम बढ़ावा दे रहे हैं।

इसी खतरे को लेकर वर्ष 2025 में प्रकाशित एक महत्वपूर्ण शोध सामने आया है –
Michael J. Kyron, Andrew C. Page, Wai Chen, Jaime Delgadillo और Hanh Ngo द्वारा Death Studies जर्नल में प्रकाशित अध्ययन:
👉 शीर्षक: “Beyond meaning in life: How a perceived futility in searching for meaning in life predicts suicidal ideation”
👉 संस्थान: University of Western Australia, Curtin Medical School, King’s College London, University of Sydney
👉 अध्ययन का दायरा: 775 विश्वविद्यालय छात्रों पर तीन समय-अवधियों में किया गया सर्वेक्षण

निष्कर्ष:

  • Existential Nihilism (यह विश्वास कि जीवन का कोई निहित अर्थ नहीं है) सीधे खराब मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ा पाया गया।
  • निहिलिज़्म ने छात्रों में अवसाद (depression) और आत्महत्या के विचार (suicidal ideation) को बढ़ावा दिया।
  • यह प्रभाव अन्य मानसिक स्वास्थ्य कारकों से स्वतंत्र था, यानी अकेले निहिलिज़्म ही जोखिम को बढ़ा रहा था।
  • शोधकर्ताओं ने साफ़ चेतावनी दी कि युवाओं में इस विचारधारा का प्रचार करना मानसिक स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है और आत्महत्या रोकथाम (suicide prevention) कार्यक्रमों में इसे शामिल करना ज़रूरी है।

🔴 यानी, निहिलिज़्म कोई “उच्च विचारधारा” नहीं बल्कि एक मानसिक विष है। और जो लोग इसे “तर्कशीलता” या “आधुनिकता” के नाम पर बेच रहे हैं, वे युवाओं के मानसिक स्वास्थ्य से खिलवाड़ कर रहे हैं।

Nihilism leads to suicidal ideation and poor mental health - Michael J Kyron, Andrew C Page, Wai Chen research paper free pdf

✍️ क़ानूनी सवाल

अब सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि जब कोई व्यक्ति छात्रों और जनता के बीच इस प्रकार का झूठा और हानिकारक प्रचार करता है — जिसमें आस्था का मज़ाक उड़ाना, धर्म का अपमान करना और निहिलिज़्म जैसी खतरनाक विचारधारा को बढ़ावा देना शामिल है — तो क्या यह केवल विचार अभिव्यक्ति है या फिर भारतीय क़ानून का सीधा उल्लंघन?

भारतीय दंड संहिता (IPC) और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम (IT Act) में ऐसी गतिविधियों को लेकर स्पष्ट प्रावधान हैं:

  • IPC धारा 505(1)(b): समाज में भय, असुरक्षा या अव्यवस्था फैलाने वाले बयान, लेख या प्रचार पर प्रतिबंध।
  • IPC धारा 295A: जानबूझकर किसी धर्म या धार्मिक विश्वास का अपमान करने वाले वक्तव्यों को दंडनीय अपराध घोषित करती है।
  • आईटी अधिनियम की धारा 66D: इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से धोखे, गलतबयानी या गुमराह करने वाली गतिविधियों पर कार्रवाई का प्रावधान।

इसलिए, जब दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे मंच पर या निजी लाइव शो में आस्था को “पाषाण युग” कहकर छात्रों को गुमराह किया जाता है, और निहिलिज़्म को बढ़ावा देकर युवाओं के मानसिक स्वास्थ्य को खतरे में डाला जाता है, तो यह सवाल उठना स्वाभाविक है — क्या यह इन धाराओं का उल्लंघन नहीं है?

क़ानून केवल अपराध रोकने के लिए नहीं, बल्कि समाज और युवाओं की मानसिक सुरक्षा के लिए भी है। और जब आचार्य व नास्तिकता के नाम पर इस तरह का विषैला विचार फैलाया जाता है, तो समाज का नैतिक कर्तव्य है कि इस पर गंभीर सवाल उठाए जाएँ।

✍️ निष्कर्ष: असली विज्ञान और आस्था

जब हम पूरी बहस को एक साथ जोड़कर देखते हैं तो सच्चाई बिल्कुल साफ़ नज़र आती है। गणित और विज्ञान से लेकर दर्शन और मनोविज्ञान तक — हर क्षेत्र इस बात की गवाही देता है कि केवल “प्रमाण” ही अंतिम सत्य नहीं है। गोल्डबाख अनुमान, कोलात्ज़ अनुमान और गोडेल का अपूर्णता प्रमेय हमें दिखाते हैं कि गणित भी कई जगहों पर आस्था और मान्यताओं पर टिका हुआ है।

इसी तरह, जब आस्था को “पाषाण युग” कहकर नकार दिया जाता है और युवाओं को निहिलिज़्म की तरफ़ धकेला जाता है, तो उसका सीधा असर उनके मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ता है। 2025 की Death Studies रिसर्च ने साफ़ दिखा दिया कि निहिलिज़्म अवसाद और आत्महत्या के विचारों को जन्म देता है। यानी यह विचारधारा न केवल दार्शनिक रूप से खोखली है, बल्कि सामाजिक और मानसिक रूप से भी घातक है।

इसलिए निष्कर्ष एक ही है — असली विज्ञान और गणित भी आस्था के बिना अधूरे हैं। और आध्यात्मिक आस्था तो जीवन का आधार है। आस्था को नकारने का मतलब केवल निहिलिज़्म और अवसाद को अपनाना है। जबकि आस्था से ही विज्ञान आगे बढ़ता है, समाज सुरक्षित रहता है और व्यक्ति मानसिक शांति पाता है।

👉 यही संदेश है इस पूरे प्रकरण का: आस्था कोई पाषाण युग की वस्तु नहीं, बल्कि आधुनिक युग का भी सबसे बड़ा सहारा है।