🔥 1. दिल्ली यूनिवर्सिटी की सबसे शर्मनाक चूक – किसको मंच दे दिया?
दिल्ली यूनिवर्सिटी (DU) जैसी संस्था का नाम सुनते ही एक उम्मीद बनती है कि यहाँ केवल वही लोग बोलते हैं जिनके पास ज्ञान, योग्यता और अकादमिक ईमानदारी होती है. लेकिन इस घटना ने DU की प्रतिष्ठा पर ऐसा दाग लगाया है जिसे आसानी से नहीं हटाया जा सकता. सवाल सीधा है – क्या DU अब विशेषज्ञता की जगह लोकप्रियता को तरजीह दे रहा है?
एक शैक्षणिक मंच किसी भी सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर या स्वयंभू आध्यात्मिक मार्गदर्शक का खेल का मैदान नहीं होता. यह वह जगह है जहाँ तथ्य, अनुसंधान और प्रमाणिक विचार रखे जाते हैं. लेकिन DU ने ऐसा किसे बुला लिया? एक ऐसे व्यक्ति को जिसे मनोविज्ञान में कोई formal qualification नहीं, कोई license नहीं, कोई peer-reviewed research नहीं और कोई clinical training नहीं. फिर भी उन्हें मानसिक स्वास्थ्य, आत्म-सम्मान और महिलाओं की मनोवैज्ञानिक स्थिति पर प्रवचन देने का अधिकार दे दिया गया.
और शर्म की बात यह है कि DU ने यह जांचने की भी ज़रूरत नहीं समझी कि इस व्यक्ति की बातें वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सही भी हैं या नहीं. यह वही वक्तव्य है जिसमें कहा गया कि मेकअप करने वाली महिलाएँ भीतर से खाली होती हैं, सजने वाली स्त्रियाँ गिर चुकी होती हैं, और मेकअप पसंद महिला से शादी नहीं करनी चाहिए. यह बयान न केवल वैज्ञानिक रूप से असत्य है बल्कि छात्र-छात्राओं की मानसिक सुरक्षा के लिए भी खतरनाक है.
इससे बड़ा प्रश्न यह है कि DU का screening mechanism आखिर गया कहाँ? क्या विश्वविद्यालय ने यह देखना भी आवश्यक नहीं समझा कि बोलने वाला व्यक्ति qualified है या नहीं? क्या उसके विचार छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य के अनुकूल हैं? क्या वह विश्वविद्यालय की बौद्धिक मर्यादा के अनुरूप है?
इस एक कार्यक्रम ने दिखा दिया कि DU ने अपनी बौद्धिक जिम्मेदारी को हल्के में लिया. और यही कारण है कि आज यह प्रश्न उठाना ज़रूरी हो गया है कि क्या ऐसे स्वघोषित आचार्यों को मंच देकर दिल्ली यूनिवर्सिटी अपने ही छात्रों के भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रही है?
🔥 2. स्वघोषित आचार्य का ‘मेक-अप ज्ञान’ – DU के मंच पर परोसा गया फेक दर्शन
दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रतिष्ठित मंच पर खड़े होकर स्वघोषित आचार्य ने मेक-अप पर जो उपदेश दिया, वह न ज्ञान था, न दर्शन, न मनोविज्ञान. यह सिर्फ एक निजी राय थी जिसे आध्यात्मिक भाषा का लबादा पहनाकर छात्रों पर थोप दिया गया. उन्होंने दावा किया कि मेक-अप करने वाली स्त्री भीतर से कमजोर होती है, वह बनावटी होती है, और उसकी मानसिक दुनिया खोखली होती है. यह भाषा किसी अध्यापक या शोधकर्ता की नहीं, बल्कि एक ऐसे व्यक्ति की लगती है जो स्त्रियों के व्यवहार को समझने के बजाय उन्हें शर्मिंदा करने में आनंद लेता है.
DU के छात्रों के सामने दिया गया यह भाषण एक प्रकार का psychological shaming था, जिसमें बाहरी सजावट को नैतिकता और चरित्र से जोड़ दिया गया. किसी विश्वविद्यालय में यह कहा जाना कि “जो मेक-अप करे वह भीतर से खाली है” एक खतरनाक narrative बनाता है. इससे अधिक दुर्भाग्य की बात यह है कि एक स्वघोषित आचार्य यह मानकर बोल रहा था कि उसे मानसिक स्वास्थ्य, स्त्री-मनोविज्ञान और human behaviour की पूरी समझ है, जबकि उसकी हर पंक्ति इस अज्ञान को उजागर कर रही थी.
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यह भाषण इस बात का संकेत है कि DU के मंच पर कोई भी व्यक्ति बिना योग्यता के, अपने निजी पूर्वाग्रहों को ‘आध्यात्मिक सलाह’ के रूप में पेश कर सकता है. छात्रों को विचार देना और उनके मन में अपराधबोध भरना दो अलग बातें हैं. और यहाँ DU के मंच से आखिरी काम ही किया गया – अपराधबोध, शर्म और विभाजन का बीज बोना.
🔥 3. दिल्ली यूनिवर्सिटी मंच पर गिल्ट-फैक्टरी: महिलाओं को शर्मिंदा करने की साजिश
दिल्ली यूनिवर्सिटी के मंच पर जो सबसे खतरनाक चीज़ हुई, वह किसी दार्शनिक बहस या आध्यात्मिक व्याख्या से कहीं आगे थी. यह था एक व्यवस्थित गिल्ट-इंडक्शन सत्र, जहाँ स्त्रियों के प्राकृतिक व्यवहार को नैतिक अपराध की तरह प्रस्तुत किया गया. स्वघोषित आचार्य ने बार-बार यह भावना पैदा की कि मेक-अप करना सिर्फ एक पसंद नहीं बल्कि एक गलती है, एक कमजोरी है, एक चरित्र दोष है. यह वही तकनीक है जिसे cult psychology में guilt-conditioning कहा जाता है, जहाँ किसी सामान्य मानवीय क्रिया को पाप जैसा रूप दे दिया जाता है ताकि व्यक्ति असुरक्षित महसूस करे.
Cult Psychology पर पांच एपिसोड की विस्तृत श्रंखला यहाँ देखें – पढ़ें |
DU जैसी संस्था के मंच पर यह कहना कि “मेक-अप करने वाली स्त्री भीतर से खाली है”, सिर्फ एक वाक्य नहीं था. यह एक संदेश था जिसका असर सुनने वाली हर लड़की के मन पर सीधे पड़ता है. यह वाक्य उसे यह महसूस कराता है कि सजना-संवरना कोई सामान्य सामाजिक क्रिया नहीं बल्कि उसकी आत्मा की कमी का प्रतीक है. इस तरह की भाषा मनोवैज्ञानिक रूप से व्यक्ति के अंदर अपराधबोध भरती है और उसे अपने ही स्वभाव पर शक करवाती है. यह हर उस तकनीक से मेल खाती है जिसे मनोविज्ञान में shame-based control कहा जाता है.
सबसे चिंताजनक बात यह है कि यह सब दिल्ली यूनिवर्सिटी के अंदर हुआ, वहाँ हुआ जहाँ छात्रों को विचारों की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए, न कि शर्म, अपराधबोध और हीनभावना. एक शैक्षणिक मंच पर गिल्ट का उत्पादन करना, खासकर महिलाओं के संदर्भ में, सीधे तौर पर उनके mental well-being को चोट पहुँचाता है. DU ने एक ऐसे व्यक्ति को मंच दिया जिसने महिलाओं की सजने की स्वतंत्रता को आंतरिक गिरावट का प्रमाण घोषित कर दिया, और छात्रों के सामने यह दिखाने की कोशिश की कि किसी भी स्त्री की सुंदरता या देखभाल के पीछे सिर्फ खोखलापन ही होता है.
यह घटना साफ दिखाती है कि DU द्वारा दिया गया मंच, छात्रों को शिक्षित करने के बजाय, एक गिल्ट-फैक्टरी में बदल गया. यह वह जगह थी जहाँ ज्ञान नहीं बांटा गया, बल्कि शर्म वितरित की गई. और इस पूरे नाटक का केंद्र था एक स्वघोषित आचार्य, जिसकी आध्यात्मिक भाषा के पीछे छिपी हुई मानसिक नियंत्रण की तकनीक अब साफ दिखाई देती है.
🔥 4. “मेक-अप वाली लड़की से शादी मत करो” – DU में सामाजिक विभाजन का सार्वजनिक महोत्सव
दिल्ली यूनिवर्सिटी के मंच पर कहा गया यह वाक्य केवल निजी राय नहीं था, यह समाज को बाँटने का एक खुला कार्यक्रम था. एक शैक्षणिक संस्थान में खड़े होकर यह कहना कि मेक-अप पसंद करने वाली लड़की से शादी मत करो, किसी विचारधारा का विस्तार नहीं बल्कि एक सोची-समझी सामाजिक इंजीनियरिंग है. यह वह क्षण था जब DU का मंच आध्यात्मिक वार्ता से हटकर सामाजिक बहिष्करण का मंच बन गया.
यह वाक्य सीधे तौर पर दो वर्ग तैयार करता है. एक वर्ग जिसे आचार्य “असली” और “भीतर से सच्चा” कहते हैं, और दूसरा वर्ग जिसे वह “कृत्रिम”, “खोखला”, “मूल्यहीन” बताते हैं. यह भाषा किसी धार्मिक ग्रंथ की नहीं बल्कि एक textbook social division model की है, जहाँ मानव व्यवहार को दो धड़ों में बाँटकर सामाजिक वैमनस्य पैदा किया जाता है. किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत पसंद जैसे मेक-अप पर आधारित विभाजन न केवल अवैज्ञानिक है बल्कि समाज को तोड़ने की तकनीक है.
DU के छात्रों के सामने यह कहना कि मेक-अप पसंद करने वाली महिला विवाह योग्य नहीं है, उनकी agency पर सीधा प्रहार है. यह महिलाओं के आत्म-सम्मान, उनकी स्वतंत्रता और उनके जीवन के चुनावों को ‘अशुद्ध’ घोषित करने का प्रयास है. यह छात्रों को सिखाता है कि स्त्री के चरित्र का मूल्यांकन उसके आंतरिक गुणों से नहीं बल्कि उसके सौंदर्य विकल्पों से किया जाना चाहिए. यह विचार न केवल स्त्री-विरोधी है, बल्कि मानसिक रूप से भी खतरनाक है, क्योंकि यह युवाओं के अंदर एक पूरी तरह गलत और विभाजनकारी framework तैयार कर देता है.
सबसे बड़ी व्यंग्यात्मक बात यह है कि DU जैसे संस्थान में यह सब होता रहा और किसी ने यह नहीं पूछा कि विवाह के विषय पर सलाह देने के लिए यह व्यक्ति qualified है या नहीं. क्या इस विश्वविद्यालय में रहने वाले छात्रों को कोई आध्यात्मिक प्रवचन चाहिए था, या एक संतुलित, शोध-आधारित, परिपक्व विचार? DU के मंच से दिया गया यह कथन उनके व्यक्तिगत जीवन में हस्तक्षेप करने का एक छिपा हुआ प्रयास था, जिसमें युवाओं के भविष्य और उनके रिश्तों पर एक व्यक्ति के निजी पूर्वाग्रह थोप दिए गए.
यह पूरा प्रसंग दिखाता है कि DU ने केवल एक कार्यक्रम आयोजित नहीं किया बल्कि अनजाने में एक सामाजिक विभाजन का उत्सव आयोजित कर दिया. और इस विभाजन की जड़ में खड़े थे वही स्वघोषित आचार्य जिनकी विचारशून्यता को आध्यात्मिक मुद्रा में बाँधकर छात्रों को परोसा गया.
🔥 5. स्वघोषित आचार्य बनाम वैज्ञानिक शोध – DU के छात्रों को किसने धोखा दिया?
दिल्ली यूनिवर्सिटी के मंच पर दिया गया भाषण स्त्रियों के मेक-अप और मानसिक स्थिति पर एकतरफा आरोपों से भरा था, लेकिन विज्ञान हर एक आरोप को तोड़कर अलग कहानी सुनाता है. इस सेक्शन में पाँच शोध हैं, पाँच अलग दिशाओं से, पाँच सटीक प्रहार. और हर प्रहार सीधे उस मंच पर दिए गए बयान को झूठा साबित करता है जिसे DU ने गर्व से प्रस्तुत किया.
इस विषय में हमारा यह वीडियो द्रष्टव्य है-
🔥 पहला शोध: 2015 – “Cosmetics Alter Biologically-Based Factors of Beauty”
इस अध्ययन में दिखाया गया कि मेक-अप चेहरे के contrast ratios को बढ़ाता है और इससे व्यक्ति अधिक स्वस्थ, अधिक सजीव और अधिक आकर्षक दिखता है. यह कोई छलावा नहीं बल्कि perceptual science है. शोधकर्ताओं ने controlled lab conditions में यह प्रमाणित किया कि यह बदलाव व्यक्ति की perceived energy और vitality को बढ़ाता है. स्वघोषित आचार्य का दावा था कि मेक-अप व्यक्ति को artificial बनाता है, जबकि विज्ञान कहता है कि मेक-अप biological health cues को amplify करता है.
DU के मंच को शायद लगा होगा कि biology किसी प्रवचन से कम महत्वपूर्ण होती है.

यह शोध Alex L. Jones (Department of Psychology, Gettysburg College और Bangor University), Richard Russell (Department of Psychology, Gettysburg College) और Robert Ward (School of Psychology, Bangor University) द्वारा किया गया था। तीनों वैज्ञानिक चेहरे की संरचना, आकर्षण, evolutionary psychology और perceptual cognition के विशेषज्ञ हैं। इस अध्ययन में पहले बड़े फेस-डेटासेट में आँख, होंठ और भौंहों के luminance, red–green, yellow–blue contrast को मापा गया और पाया कि स्त्री-पुरुष के चेहरों में यह contrast एक प्राकृतिक sexual dimorphism है — महिलाओं की आँख और होंठ का कॉन्ट्रास्ट स्वभावतः अधिक होता है, जबकि पुरुषों की भौंहें अधिक गहरी होती हैं। इसके बाद 44 युवतियों के मेक-अप से पहले और बाद की फ़ोटो की तुलना की गई। परिणाम यह निकला कि मेक-अप महिलाओं के चेहरे के उन्हीं contrast संकेतों को बढ़ाता है जो युवावस्था, स्त्री-सौंदर्य और स्वास्थ्य से जैविक रूप में जुड़े होते हैं। इसका निष्कर्ष यह है कि मेक-अप केवल “श्रृंगार” नहीं, बल्कि scientifically validated biological signalling enhancement है। हमारे विमर्श में इसका अर्थ यह है कि मेक-अप को “अज्ञानता”, “अहंकार” या “नक़ाब” कहकर खारिज कर देना वैज्ञानिक रूप से गलत है — मेक-अप महिला-स्वास्थ्य, मानसिक-आत्मविश्वास और evolutionary attractiveness से संबंधित मूल जैविक संकेतों को उभारता है, और इसे त्यागने की अप्रमाणिक सलाह देना युवाओं के self-esteem और wellbeing के विरुद्ध जाता है।
🔥 दूसरा शोध: 2021 – “Who Is Behind the Makeup?”
इस अध्ययन ने दिखाया कि मेक-अप पहनने वाली महिलाएँ अधिक socially confident, more approachable और better mood में पाई गईं. इस शोध में real-world assessments और psychological perception studies शामिल थे. प्रतिभागियों ने मेक-अप पहनने वालों को अधिक competent और more emotionally balanced माना. स्वघोषित आचार्य ने कहा कि मेक-अप अंदरूनी खालीपन दिखाता है, लेकिन अध्ययन कहता है कि मेक-अप सामाजिक संवाद को आसान बनाता है, तनाव कम करता है और social functioning को बढ़ाता है.
DU को शायद पता ही नहीं कि psychology प्रयोगशाला में होती है, मंच पर नहीं.

2021 का यह शोधपत्र “Who is Behind the Makeup?” मनोविज्ञान के क्षेत्र में किया गया एक नियंत्रित प्रयोग है, जिसमें लेखक Erick R. Aguinaldo और Jessie J. Peissig हैं। दोनों Department of Psychology, California State University, Fullerton (USA) से हैं, और विशेष रूप से visual perception, face processing, behavioural psychology में शोध करते हैं। इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने facial attractiveness, cosmetic application, और observer perception को समझने के लिए प्रायोगिक डिज़ाइन अपनाया। प्रतिभागियों को बिना मेक-अप और मेक-अप वाले चेहरे दिखाए गए, और फिर सांख्यिकीय विश्लेषण के माध्यम से यह मापा गया कि मेक-अप किस तरह perceived personality traits, trustworthiness, competence और femininity जैसे आयामों को प्रभावित करता है। निष्कर्ष यह पाया गया कि मेक-अप न केवल चेहरे की dimorphism cues को बढ़ाता है (जैसे symmetry, clarity, contrast), बल्कि यह सामाजिक इंटरैक्शन में आत्मविश्वास, पहचान का निर्माण, और भावनात्मक-सामाजिक प्रस्तुति को भी मजबूत करता है। इसका आपकी चर्चा पर सीधा प्रभाव यह है कि मेक-अप को “कृत्रिम”, “झूठ”, या “मानसिक कमजोरी” बताने वाली बातें वैज्ञानिक रूप से निराधार हैं। शोध स्पष्ट दिखाता है कि कॉस्मेटिक व्यवहार एक evolutionary, psychological और social signalling mechanism है, न कि कोई नैतिक दोष या मानसिक बीमारी।
🔥 तीसरा शोध: 2020 – “An Evolutionary Perspective on Appearance Enhancement Behavior”
इस शोध ने evolutionary psychology के आधार पर बताया कि appearance enhancement एक adaptive behaviour है. यह मानसिक असुरक्षा नहीं, बल्कि self-regulation और social adaptability का हिस्सा है. अध्ययन में दिखाया गया कि सौंदर्यप्रसाधन self-esteem, mate selection confidence और well-being को बढ़ाते हैं. स्वघोषित आचार्य ने कहा कि मेक-अप भीतर की कमजोरी है, जबकि evolutionary science कहती है कि यह मानसिक रूप से सक्षम होने का संकेत है.
DU शायद यही समझ बैठा कि evolution भी कोई WhatsApp forward है.

लेखकः डॉ. ऐडम सी. डेविस (University of Ottawa, Evolutionary Psychology), और डॉ. स्टीवन आर्नॉकी (Nipissing University, Department of Psychology)।
दोनों evolutionary mating psychology और sexual-selection dynamics के विशेषज्ञ हैं।
यह 35-page का विस्तृत evolutionary review बताता है कि महिलाओं और पुरुषों में makeup व appearance-enhancement एक evolved mating strategy है। Methodology meta-synthesis पर आधारित है: 300+ evolutionary, biological और psychological शोधपत्रों की cross-analysis। इसमें बताया गया कि मेकअप sexual-selection signals जैसे youthfulness, health, symmetry और dimorphic traits को enhance करता है। यह भी दिखाया गया कि दुनिया के हर समाज में महिलाएँ अपने mate-value को बढ़ाने के लिए appearance-enhancement का प्रयोग करती हैं—यह कोई modern insecurity नहीं बल्कि लाखों वर्षों की evolutionary history का outcome है।
निष्कर्ष: Makeup एक extended phenotype है, ठीक उसी तरह जैसे birds के रंगीन feathers या bowerbirds के decorated bowers। यह dishonesty नहीं है, बल्कि self-promotion strategy है।
DU में कहा गया कि “मेकअप = धोखा, असत्य, छल” — लेकिन evolutionary psychology के अनुसार यह न तो छल है, न विकृति। यह natural biological adaptation है, जिसे attack करना केवल science-illiteracy दिखाता है।
🔥 चौथा शोध: 2018 – “Recover Your Smile: Beauty Care Intervention and Depressive Symptoms”
यह clinical intervention study स्त्री-मानसिक स्वास्थ्य के लिए एक निर्णायक प्रमाण है. छह सप्ताह की beauty-care intervention के बाद महिलाओं के depressive symptoms में clinically significant गिरावट देखी गई. जिन महिलाओं को हल्का अवसाद था, उनमें सबसे बड़ा सुधार पाया गया. इसका अर्थ है कि self-care और सौंदर्य सज्जा मानसिक स्वास्थ्य को सीधा लाभ पहुँचाते हैं. स्वघोषित आचार्य ने इसे गिरावट की निशानी बताया, जबकि शोध कहता है कि यह recovery की निशानी है.
DU शायद clinical psychology को motivational quotes समझ बैठा.

लेखकः अन्ना रिचर्ड (MSc, University of Salzburg, Cognitive Neuroscience), डॉ. नादिया हार्बेक (Head of Breast Center, University of Munich), और clinical psychology व oncology के अन्य विशेषज्ञ।
Methodology में early-stage breast cancer patients (n=39) को randomised controlled design में makeup workshop + photoshoot intervention दिया गया। 8-week follow-up में depression, body-image, QoL और self-esteem में consistent improvement दिखी। यह पहला study है जिसने दिखाया कि मेकअप का psychological benefit short-term ही नहीं बल्कि mid-term तक स्थिर रहता है।
DU के मंच से “मेकअप = मानसिक कमजोरी, असत्य” कहना इस शोध के बिल्कुल विपरीत है। वास्तविकता यह है कि clinical oncology में मेकअप को therapeutic intervention की तरह prescribe किया जाता है।
🔥 पाँचवाँ शोध: 2024 – “Effect of Makeup Use on Depressive Symptoms”
यह सबसे विस्फोटक शोध है. इसमें पाया गया कि एक बार मेक-अप लगाने के तुरंत बाद cortisol स्तर 55% तक गिर गया. यह stress hormone है और इसका गिरना instant psychological relief का संकेत है. अध्ययन ने पुष्टि की कि मेक-अप mood में सुधार लाता है, anxious arousal कम करता है और emotional stability बढ़ाता है. स्वघोषित आचार्य बोल रहे थे कि मेक-अप मानसिक खोखलापन दिखाता है, लेकिन neuroscience-based hormonal data चिल्ला-चिल्लाकर कह रहा है कि मेक-अप मानसिक स्वास्थ्य का सहायक है.
DU के मंच को शायद यह भी नहीं पता कि cortisol कोई cosmetic brand नहीं है.

लेखकः जापान व अमेरिका के clinical psychologists और psychiatric researchers (Kyoto University School of Medicine व UC San Diego collaborations)।
Methodology में longitudinal tracking किया गया: प्रतिभागियों के mood, depression-scores, emotional-regulation patterns को naturalistic diary sampling व psychological scales से assess किया गया।
निष्कर्ष यह है कि मेकअप mood-regulation system का हिस्सा बन सकता है, और कई लोगों में यह depressive-symptoms घटाता है क्योंकि यह self-agency, control, और body-ownership बढ़ाता है। यह “self-care loop” के रूप में काम करता है जो neuroscience में reward-prediction circuits को activate करता है।
मेकअप का उपयोग मानसिक बीमारी या भ्रम का लक्षण नहीं है (जैसा व्याख्याता ने प्रचारित किया)। इसके विपरीत, science इसे emotional-stability बढ़ाने वाला tool मानता है।
इन पाँचों शोधों ने मिलकर एक ही सच्चाई साबित की है – DU ने जिस व्यक्ति को मेक-अप और मानसिक स्वास्थ्य पर authority की तरह मंच दिया, वह व्यक्ति न विज्ञान जानता है, न मनोविज्ञान, न research methodology और न basic human behaviour. यह संयोग नहीं, बल्कि DU द्वारा छात्रों को misleading information देने की एक ऐतिहासिक भूल है.
🔥 6. दिल्ली विश्वविद्यालय के लिए खुला प्रश्न – क्या इसको ‘शैक्षणिक मंच’ कहना चाहिए या ‘मनोवैज्ञानिक खतरा’?
दिल्ली यूनिवर्सिटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थान से उम्मीद की जाती है कि वह मंच केवल उन्हीं लोगों को दे जो किसी विषय पर विशेषज्ञता रखते हों. परंतु इस घटना ने यह दिखा दिया कि DU ने न योग्यता देखी, न शोध देखा, न अनुभव देखा, बस आभा और लोकप्रियता के आधार पर मंच दे दिया. यह केवल एक administrative error नहीं थी, यह छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य की उपेक्षा थी. और यह उपेक्षा इतनी गंभीर है कि अब यह प्रश्न उठाना आवश्यक हो गया है कि DU का मंच शिक्षा का स्थान था या मनोवैज्ञानिक खतरे का नया अड्डा.
एक स्वघोषित आचार्य को बिना किसी valid screening के मेक-अप, स्त्री-विचार, मानसिक स्वास्थ्य और character judgement जैसे सूक्ष्म विषयों पर बोलने देना, विश्वविद्यालय की जिम्मेदारी की खुली अवहेलना है. क्या DU को यह बुनियादी समझ भी नहीं कि mental health पर बोलने के लिए clinical training और psychological knowledge की आवश्यकता होती है? या फिर DU ने यह मान लिया कि कोई भी व्यक्ति आध्यात्मिक भाषा में अपने निजी पूर्वाग्रहों को लपेटकर छात्रों पर थोप सकता है?
जब DU के मंच पर यह कहा गया कि मेक-अप करने वाली स्त्रियाँ भीतर से कमजोर हैं और उनसे शादी नहीं करनी चाहिए, तब विश्वविद्यालय ने केवल एक विचार नहीं endorse किया बल्कि छात्रों के personal autonomy और mental safety को भी चोट पहुँचाई. इस प्रकार का शर्म-आधारित उपदेश न तो शैक्षणिक है, न बौद्धिक, न सुरक्षित. यह सीधे-सीधे psychological harm का जोखिम उत्पन्न करता है. उन लड़कियों पर इसका प्रभाव बहुत गहरा पड़ सकता है जो पहले ही social pressure और body-image issues से जूझ रही हों.
और सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि DU ने इस उपदेश को रोकने या जाँचने की कोशिश भी क्यों नहीं की? क्या किसी ने transcript पढ़ा था? क्या किसी ने यह पूछा कि वक्ता के दावे research-backed हैं या नहीं? क्या किसी ने यह सोचा कि एक व्यक्ति जो psychology के किसी भी पहलू में qualified नहीं है, वह छात्रों को मानसिक स्वास्थ्य पर सलाह देने के लायक नहीं है?
यह घटना DU के लिए केवल PR embarrassment नहीं है. यह उसके academic ethics पर गंभीर प्रश्नचिह्न है. अगर यही स्तर जारी रहा तो DU में ज्ञान की जगह pseudo-spiritual moral policing का राज हो जाएगा. ऐसे में यह कहना भी गलत नहीं होगा कि DU ने उस दिन शिक्षा नहीं, भ्रम का प्रसार किया.
✦ 7. स्वघोषित आचार्य की भाषा: स्त्री-विरोध, असत्य, और cult-pattern — DU को दिखाई नहीं दिया?
क्या दिल्ली यूनिवर्सिटी ने यह नहीं देखा कि इस स्वघोषित आचार्य की भाषा लगातार महिलाओं को नीचा दिखाती है, उनके चुनावों को ridicule करती है और उन्हें “शादी के लायक नहीं” घोषित करती है?
क्या DU ने यह नहीं पूछा कि ऐसे derogatory remarks क्या IPC 509 (words insulting the modesty of a woman) के दायरे में विचार योग्य प्रश्न खड़े करते हैं?
और क्या bar-bar women-shaming वाली भाषा किसी cult-pattern की ओर संकेत नहीं करती? DU के कार्यक्रम में ऐसी भाषा क्यों allow की गई?
✦ 8. विद्यार्थियों के मानसिक स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ — दिल्ली यूनिवर्सिटी कब जागेगी?
जब peer-reviewed research clearly दिखाती है कि मेकअप mood improve करता है, depressive symptoms को कम कर सकता है और cortisol levels को regulate करता है, तब DU के मंच पर मेकअप को “गिरावट”, “बीमारी”, और “बर्बादी का रास्ता” कहना क्या students के मानसिक स्वास्थ्य के खिलाफ misinformation नहीं है?
क्या ऐसी unfounded psychological claims IPC 505(1)(b) (statements causing harm to the public) के बारे में वैध सवाल नहीं उठाते?
क्या DU ने जरा भी जांच की कि इस व्यक्ति के पास psychology में कोई qualification, training या license है या नहीं, जबकि वह health-related assertions कर रहा है?
✦ निष्कर्ष: दिल्ली यूनिवर्सिटी को अब तय करना है कि वह ज्ञान देगी या भ्रम
दिल्ली यूनिवर्सिटी जैसे संस्थान का दायित्व है कि वह छात्रों को प्रमाण, तर्क और जिम्मेदारी सिखाए। लेकिन DU के मंच पर एक स्वघोषित, अयोग्य और बिना-लाइसेंस के “आचार्य” को बुलाकर मनोविज्ञान, मानसिक स्वास्थ्य और स्त्री-सम्मान पर गढ़ी हुई बातें बोलने देना यह दिखाता है कि कहीं न कहीं संस्थागत सतर्कता खो रही है।
रामचरितमानस के बालकाण्ड ३२२ में स्पष्ट प्रमाण मिलता है कि स्त्री-सौंदर्य और श्रृंगार को हमारी परम्परा “सुमंगल” मानती है, न कि दोष। मूल पंक्तियाँ स्वयं इसकी पुष्टि करती हैं:
चलि ल्याइ सीतहि सखीं सादर सजि सुमंगल भामिनीं ।
नवसप्त साजें सुंदरी सब मत्त कुंजर गामिनीं ॥
यह दृश्य दिखाता है कि जानकीजी का श्रृंगार किसी “कृत्रिमता” या “अहंकारी दिखावे” का रूप नहीं, बल्कि पवित्र आनंद, स्त्री-गरिमा, कुल-शोभा और शुभ-लक्षणों की अभिव्यक्ति है। तुलसीदासजी के इस प्रत्यक्ष प्रमाण को देखते हुए कोई भी व्यक्ति यदि मेकअप या स्त्री-सज्जा को “हीन”, “दोषपूर्ण” या “आत्मिक गिरावट” कहे, तो वह शास्त्रीय प्रमाणों के विपरीत बोल रहा होता है। यही प्रश्न दिल्ली विश्वविद्यालय को भी सोचना चाहिए कि क्या ऐसे वक्ता परंपरा का सही प्रतिनिधित्व कर रहे थे, या अपने निजी पूर्वाग्रहों को आध्यात्मिकता का नाम देकर छात्रों के सामने परोस रहे थे।
अरण्यकाण्ड २/३–४ में तुलसीदासजी इससे भी अधिक प्रामाणिक सौंदर्य-दर्शन प्रस्तुत करते हैं, जहाँ स्वयं भगवान राम जानकीजी को प्रेमपूर्वक अलंकृत करते हैं। मूल पंक्तियाँ देखें:
एक बार चुनि कुसुम सुहाए । निज कर भूषन राम बनाए ॥
सीतहि पहिराए प्रभु सादर । बैठे फटिक सिला पर सुंदर ॥
यहाँ श्रृंगार प्रेम, सौम्यता, दांपत्य-संवाद और कोमल भावनाओं का पवित्र रूप है। यदि स्वयं श्रीराम पुष्प चुनकर भूषण रचते हैं और आदरपूर्वक सीता को पहनाते हैं, तो यह सिद्ध होता है कि भारतीय संस्कृति में श्रृंगार न तो “अज्ञान” है, न “अहंकार”, न “कृत्रिमता”। यह सौंदर्य, स्नेह, आनंद और आध्यात्मिक कोमलता का उत्सव है। ऐसी स्थिति में यदि कोई स्वघोषित आचार्य छात्राओं को यह कहे कि “सजने वाली स्त्री का मूल्य नहीं”, तो यह न केवल मनोवैज्ञानिक रूप से गलत है, बल्कि रामायण के मूल शास्त्रीय प्रमाणों का प्रत्यक्ष विरोध भी है।
क्या किसी भी व्यक्ति को केवल ऑनलाइन लोकप्रियता के आधार पर छात्रों को मानसिक स्वास्थ्य, व्यवहार, relationship choices और gender पर बिना scientific basis वाले उपदेश देने देना विश्वविद्यालय की अकादमिक गरिमा का अपमान नहीं है?
क्या DU को यह नहीं सोचना चाहिए कि ऐसी बातें, जो छात्रों को डराती हैं, शर्मिंदा करती हैं या एक वर्ग को दूसरे के खिलाफ खड़ा करती हैं, IPC 505(1)(b) और IPC 153A जैसे कानूनों से जुड़े महत्वपूर्ण प्रश्न खड़े करती हैं?
क्या DU का यह दायित्व नहीं बनता कि जो व्यक्ति मेकअप, स्त्री-स्वतंत्रता और निजी choices को “बीमारी” घोषित कर रहा है, उससे यह पूछे कि उसका आधार क्या है? qualification क्या है? license कहां है? research कौन-सी है?
सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यही है: क्या हमारे विश्वविद्यालय अब ऐसे self-styled गुरुओं के मंच बनेंगे जो विज्ञान और मनोविज्ञान को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करते हैं, या फिर वे सत्य, प्रमाण और नैतिक जिम्मेदारी के पक्षधर रहेंगे?
भविष्य की पीढ़ियाँ DU के इस निर्णय को याद रखेंगी। संस्थान चाहे तो academic integrity बचा सकता है – या फिर ऐसे स्वघोषित आचार्यों को मंच देकर इसे धीरे-धीरे खो भी सकता है।
निर्णय DU का है। जिम्मेदारी भी।
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