गीता में विरोधाभास या आलोचकों की अधूरी समझ ?

भूमिका

श्रीमद्भगवद्गीता को अक्सर दुनिया का सबसे महानतम और बहुआयामी शास्त्र माना जाता है। इसके गूढ़ सिद्धांतों ने हजारों वर्षों से मनुष्य को जीवन का मार्गदर्शन दिया है। फिर भी, कुछ आलोचक इसे विरोधाभासी मानते हैं, यह दावा करते हुए कि गीता के विभिन्न श्लोक एक-दूसरे के विपरीत हैं। यह लेख उन आलोचकों के तर्कों को खारिज करते हुए यह दिखाएगा कि गीता में विरोधाभास नहीं है, बल्कि यह जीवन के विभिन्न आयामों और दृष्टिकोणों को समाहित करने वाला एक समग्र दर्शन है। इसके साथ ही, हम इन आलोचकों के लिए कुछ तीखे व्यंग्यात्मक और सार्थक उत्तर भी प्रस्तुत करेंगे।

इस विषय पर हमारा यह वीडियो द्रष्टव्य है-

भाग 1: कर्म और सन्यास – विरोधाभास या सटीक निर्देश?

गीता में कर्म योग और सन्यास योग पर चर्चा करते हुए कई लोग इसे विरोधाभास मानते हैं। वे सोचते हैं कि भगवान कृष्ण कभी कर्म करने की बात करते हैं तो कभी सन्यास की।

श्लोक 1:

गीता 2.47: “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।”

(तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, फल की चिंता मत करो।)

इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण स्पष्ट रूप से अर्जुन से कहते हैं कि उसे अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए, बिना फल की चिंता किए। यहाँ कर्म करने पर जोर दिया गया है, जो यह बताता है कि जीवन में निष्क्रिय रहना विकल्प नहीं है।

श्लोक 2:

गीता 6.2: “यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव।”

(जिसे सन्यास कहा जाता है, उसे योग समझो।)

इस श्लोक में भगवान सन्यास को योग बताते हैं, जो कि इच्छाओं और मोह से मुक्त होने की अवस्था है। आलोचक यह सोचते हैं कि जब गीता में कर्म करने पर जोर दिया गया है, तो यहाँ सन्यास की बात करना विरोधाभासी है।

स्पष्टीकरण:

वास्तव में यह विरोधाभास नहीं है। गीता कर्म करते हुए मोह और इच्छाओं से मुक्त रहने की शिक्षा देती है। कर्म से नहीं भागना है, मोह से मुक्त होना है ! सन्यास का अर्थ जीवन से भागना नहीं है, बल्कि मन से कामना और इच्छाओं का त्याग करना है। इसलिए, कर्म और सन्यास एक ही रास्ते के दो पहलू हैं। अगर आप कर्म और सन्यास को विरोधाभास मानते हैं, तो शायद आप ‘संतुलन’ शब्द से अनजान हैं!

भाग 2: फ्री विल और नियति – विरोधाभास या आध्यात्मिक सत्य?

कई आलोचक कहते हैं कि गीता में फ्री विल (स्वतंत्र इच्छा) और नियति (भाग्य) को लेकर विरोधाभास है। एक तरफ भगवान कृष्ण अर्जुन को चुनाव की स्वतंत्रता देते हैं, और दूसरी तरफ कहते हैं कि सबकुछ पहले से तय है।

श्लोक 1:

गीता 18.63: “इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया।

विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु।।

(मैंने तुम्हारे सामने ज्ञान का सबसे गुप्त सत्य प्रकट कर दिया है, अब तुम जो चाहो वह करो।)

इस श्लोक में भगवान कृष्ण ने अर्जुन को सारे ज्ञान के बाद चुनाव की स्वतंत्रता दी। यहाँ ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्य की अपनी स्वतंत्र इच्छा है।

श्लोक 2:

गीता 11.33: “तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्।

मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्।।

(उठो अर्जुन, युद्ध करो, और उन शत्रुओं को मारो जो पहले से ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। तू बस निमित्त बन जा !)

इस श्लोक में भगवान स्पष्ट रूप से कहते हैं कि युद्ध का परिणाम पहले से तय है, और अर्जुन को केवल इस नियति का साधन बनना है। अब आलोचक यह सोचते हैं कि अगर सब कुछ पहले से तय है, तो फ्री विल का क्या अर्थ?

स्पष्टीकरण:

यह विरोधाभास नहीं है। गीता में भगवान ने दोनों को साथ में जोड़ा है। भाग्य और फ्री विल एक साथ काम करते हैं। व्यक्ति को कर्म करने की स्वतंत्रता है, लेकिन अंतिम परिणाम परमेश्वर के हाथ में है। यह दोनों एक ही आध्यात्मिक सत्य को दिखाते हैं कि हमें प्रयास करने चाहिए, लेकिन अंतिम निर्णय सर्वोच्च शक्ति का है। फ्री विल और नियति में विरोधाभास देखने वाले शायद जीवन के खेल को समझने में ही असफल हो गए।

भाग 3: भक्ति और कर्म का संतुलन – विरोधाभास या समन्वय?

कुछ आलोचक यह तर्क देते हैं कि गीता एक तरफ भक्ति की बात करती है और दूसरी ओर कर्म करने की। यह उन्हें विरोधाभासी लगता है।

श्लोक 1:

गीता 9.22: “अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।

तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।”

(जो लोग मेरी भक्ति करते हुए मुझमें ध्यान लगाते हैं, मैं उनके सभी योग क्षेम का वहन करता हूँ।)

इस श्लोक में भगवान यह कहते हैं कि जो लोग केवल उनकी भक्ति में लीन रहते हैं, उनके जीवन का सारा प्रबंध वे स्वयं करते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि भक्ति ही सर्वोपरि है।

श्लोक 2:

गीता 3.19: “तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।”

(सभी समय में मेरा स्मरण करते हुए अपने कर्तव्यों का पालन करो।)

इस श्लोक में भगवान अर्जुन से कहते हैं कि उन्हें युद्ध करना है, और उनके कर्तव्यों का पालन करना है। आलोचक इसे विरोधाभासी मानते हैं, क्योंकि एक तरफ भक्ति और दूसरी तरफ कर्म की बात हो रही है।

स्पष्टीकरण:

यह विरोधाभास नहीं है, बल्कि भक्ति और कर्म का संतुलन है। गीता सिखाती है कि कर्म करते हुए भी हम भगवान की भक्ति कर सकते हैं। भक्ति और कर्म एक साथ चल सकते हैं, यह जीवन के अलग-अलग हिस्से नहीं, बल्कि एक ही मार्ग के दो पहलू हैं। जो लोग भक्ति और कर्म को अलग समझते हैं, शायद वे अपने जीवन में कभी सही मायनों में काम और भक्ति का संतुलन बना नहीं पाए। गीता में भक्ति और कर्म विरोधाभासी लग रहे हैं? लगता है आपने ‘मल्टीटास्किंग’ का कॉन्सेप्ट कभी समझा ही नहीं।

निष्कर्ष:

गीता में विरोधाभास देखने वाले आलोचक अक्सर इसे केवल सतही तौर पर पढ़ते हैं और इसके गहरे सिद्धांतों को समझने में असफल रहते हैं। गीता कोई साधारण किताब नहीं है; यह जीवन के हर पहलू को एक साथ संतुलित करने का विज्ञान है। जो लोग गीता में विरोधाभास ढूंढ रहे हैं, वे शायद इसके वास्तविक अर्थ को समझने की चेष्टा ही नहीं कर रहे। यह उनका अज्ञान है, न कि गीता का दोष। गीता में विरोधाभास देखने वाले आलोचक उस व्यक्ति जैसे हैं जो समुद्र को देखकर कहता है कि उसमें पानी क्यों है?

इस ब्लॉग पोस्ट का उद्देश्य उन आलोचकों की भ्रांतियों को दूर करना है, जो गीता को सतही रूप से समझते हैं। गीता विरोधाभासी नहीं है, बल्कि यह जीवन के हर पहलू को समग्र दृष्टिकोण से प्रस्तुत करती है।

परिशिष्ट

गीता पर उपलब्ध विभिन्न हिंदी टीकाएँ यहाँ से डाऊनलोड करें !