आर्य समाज का चौंकाने वाला खुलासा: स्वामी दयानन्द सरस्वती ने किया मूर्ति पूजा का समर्थन

स्वामी दयानंद सरस्वती, जिन्होंने 1875 में आर्य समाज की स्थापना की, अपने एकेश्वरवाद के समर्थन और मूर्ति पूजा के विरोध के लिए जाने जाते हैं। उनका मुख्य उद्देश्य वैदिक धर्म के शुद्ध रूप में पुनरुत्थान करना था। स्वामी दयानंद के अनुसार, हिंदू धर्म में समय के साथ कई भ्रष्टाचार और अधार्मिक प्रथाएं समाहित हो गईं, जिनमें मूर्ति पूजा प्रमुख थी।

स्वामी दयानंद के विचार

स्वामी दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश (सत्य का प्रकाश) नामक अपनी प्रसिद्ध पुस्तक में स्पष्ट रूप से कहा है कि मूर्ति पूजा वैदिक सिद्धांतों के विपरीत है। उनका मानना था कि वेदों में मूर्ति पूजा का कोई उल्लेख नहीं है और यह एक ऐसी प्रथा है जो बाद में समाज में पंडितों द्वारा प्रचलित हुई। उनका तर्क था कि वेदों में केवल निराकार, सर्वव्यापी परमात्मा की पूजा का आदेश है।

इसके साथ ही, स्वामी दयानंद ने ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका में भी इस बात की पुष्टि की है कि वेद मूर्तियों या छवियों के माध्यम से भगवान की पूजा करने की अनुमति नहीं देते हैं। उनका दावा था कि वास्तविक वैदिक धर्म में केवल एक निराकार, अव्यक्त भगवान की पूजा होनी चाहिए। उनका यह भी मानना था कि मूर्ति पूजा और उससे जुड़े अन्य कर्मकांड, जो वैदिक परंपरा में बाद में जुड़ गए, समाज में धार्मिक भ्रष्टाचार का प्रतीक हैं।

लेकिन उनके लिखे हुए वेदों पर भाष्य और कुछ और ग्रंथों से पता चलता है कि वह सगुन साकार ब्रह्म को भी मानते थे और मूर्ति पूजा को भी | इस प्रबंध में हम उनके ही भाष्य और रचनाओं से उनके गूढ़ विचारों को प्रमाणित करेंगे | इस विषय को समझने के लिए हमारा यह वीडियो द्रष्टव्य है –

नोट – इस लेख का उद्देश्य किसी के धार्मिक भावना को चोट पहुँचाना नहीं बल्कि स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के विचार लोगों के सम्मुख रखना है ताकि लोग स्वयं सत्यासत्य का निर्णय कर सकें !

प्रमाण 1 : परमात्मा से विचित्र प्रार्थना

सबसे पहले उनके ऋग्वेद के 1/104/8 इस मंत्र पर किये भाष्य को लेते हैं | उनके भाष्य वेद.com पर उपलब्ध हैं-

मा नो॑ वधीरिन्द्र॒ मा परा॑ दा॒ मा न॑: प्रि॒या भोज॑नानि॒ प्र मो॑षीः।

इस पर स्वामी दयानन्द सरस्वती लिखते हैं –

हे (मघवन्) स्वामी ! आप (नः) हम मनुष्यों को (मा, वधीः) मत मारिये (मा, परा, दाः) अन्याय से दण्ड मत दीजिये, स्वाभाविक काम और (नः) हम लोगों के (सहजानुषाणि) जो जन्म से सिद्ध उनके वर्त्तमान (प्रिया) पियारे (भोजनानि) भोजन पदार्थों को (मा, प्र मोषीः) मत चोरिये

अब आप स्वयं बताएँ कि क्या बिना शरीर के चोरी की जा सकती है ? यदि आर्य समाजी कहें कि परमात्मा दूसरों के माध्यम से चोरी करवाते हैं तो यह अर्थ भी ठीक नहीं है क्योंकि आर्याभिविनय नामक उनके ग्रन्थ में भी उन्होंने यही मन्त्र उद्धृत किया है और वहाँ यह कहा है की हे परमात्मा आप न स्वयं चुराएं और न दूसरों से ही चुरवाएँ |

Verse from Rigveda quoted in Aryabhivinay requesting Parmatma to not steal

आर्याभिविनय नामक ग्रन्थ स्वामी दयानन्द सरस्वती जी की एक रचना है जिसमें उन्होंने ऋग्वेद और यजुर्वेद के मन्त्रों से साक्ष्य दिए हैं कि परमात्मा की प्रार्थना कैसे करनी चाहिए | पाठकों के सुविधार्थ हम यह ग्रन्थ निःशुल्क उपलब्ध करवा रहे हैं –

Aryabhivinay of Swami Dayanand Saraswati

प्रमाण 2: यजुर्वेद में परमात्मा के स्त्री का वर्णन

यजुर्वेद के छब्बीसवें अध्याय के दूसरे मन्त्र पर उनके भाष्य को लेते हैं | उनके भाष्य वेद.com पर उपलब्ध हैं |

यथे॒मां वाचं॑ कल्या॒णीमा॒वदा॑नि॒ जने॑भ्यः। ब्र॒ह्म॒रा॒ज॒न्या᳖भ्या शूद्राय॒ चार्या॑य च॒ स्वाय॒ चार॑णाय च।

इस पर स्वामी दयानन्द सरस्वती लिखते हैं –

हे मनुष्यो ! मैं ईश्वर (यथा) जैसे (ब्रह्मराजन्याभ्याम्) ब्राह्मण, क्षत्रिय (अर्याय) वैश्य (शूद्राय) शूद्र (च) और (स्वाय) अपने स्त्री, सेवक आदि (च) और (अरणाय) उत्तम लक्षणयुक्त प्राप्त हुए अन्त्यज के लिए (च) भी (जनेभ्यः) इन उक्त सब मनुष्यों के लिए (इह) इस संसार में (इमाम्) इस प्रगट की हुई (कल्याणीम्) सुख देनेवाली (वाचम्) चारों वेदरूप वाणी का (आवदानि) उपदेश करता हूँ, वैसे आप लोग भी अच्छे प्रकार उपदेश करें।

यहाँ पर उनके स्त्री और नौकर का वर्णन है | बिना शरीर के स्त्री कैसे हो सकती है ? उनको उपदेश कैसे हो सकता है ? इससे भी स्पष्ट होता है कि वह परमात्मा के सगुन साकार रूप को मानते थे!

प्रमाण 3: यजुर्वेद में परमात्मा के प्रकट होने का वर्णन

यजुर्वेद के इकतीसवें अध्याय के उन्नीसवें मन्त्र पर उनके भाष्य को देखिये –

प्र॒जाप॑तिश्च॒रति॒ गर्भे॑ऽअ॒न्तरजा॑यमानो बहु॒धा वि जा॑यते।


हे मनुष्यो ! जो (अजायमानः) अपने स्वरूप से उत्पन्न नहीं होनेवाला (प्रजापतिः) प्रजा का रक्षक जगदीश्वर (गर्भे) गर्भस्थ जीवात्मा और (अन्तः) सबके हृदय में (चरति) विचरता है और (बहुधा) बहुत प्रकारों से (वि, जायते) विशेषकर प्रकट होता

इससे भी सिद्ध होता है कि वह परमात्मा के सगुन साकार रूप और अवतारवाद को भी मानते थे |

प्रमाण 4: ऋग्वेद में परमात्मा को पुकारने का निर्देश

अब ऋग्वेद 1/101/5 के इस मन्त्र पर उनके भाष्य को लिया जाए –

यो विश्व॑स्य॒ जग॑तः प्राण॒तस्पति॒र्यो ब्र॒ह्मणे॑ प्रथ॒मो गा अवि॑न्दत्। इन्द्रो॒ यो दस्यूँ॒रध॑राँ अ॒वाति॑रन्म॒रुत्व॑न्तं स॒ख्याय॑ हवामहे ॥

वेद.com पर उनके भाष्य को बदल दिया गया है, लेकिन आर्याभिविनय में उनके किये हुए उद्धरण को देखिये –

Verse from Rigved quoted in Aryabhivinay of Swami Dayanand Saraswati calling Parmatma to become friends

निर्गुण निराकार परमात्मा को पुकारा तो जा नहीं सकता | पुकारा तो उसी को जाता है जो वहाँ न हो और सगुन साकार (कान वाला) हो | इससे भी सिद्ध होता है कि स्वामी दयानन्द सरस्वती जी सगुन ब्रह्म को मानते थे |

प्रमाण 5: आर्य समाजियों का मनसा परिक्रमा

संस्कार विधि नामक ग्रन्थ में स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने यह छह मन्त्र उद्धृत किये हैं जिनका प्रयोग आर्य समाजी प्रतिदिन मनसा परिक्रमा के लिए करते हैं –

Manasa parikrama mantras of Arya Samaj as suggested by Dayanand Saraswati

संस्कार विधि स्वामी दयानन्द सरस्वती जी की एक प्रमुख रचना है जिसमें उन्होंने षोडस संस्कारों के क्रिया विधि या कर्म काण्ड का निर्देश किया है | आर्य समाजियों द्वारा षोडस संस्कार के सम्पादन में इसी ग्रन्थ का उपयोग किया जाता है | हम पाठकों और शोधार्थियों के सुविधा हेतु यह ग्रन्थ निशुल्क उपस्थित करवा रहे हैं –

Sanskar vidhi of Dayanand Saraswati Free Download

अब आप ही बताएं निर्गुण निराकार सर्वव्यापक की मानसिक परिक्रमा कैसे होगी ? परिक्रमा तो सगुन साकार की ही हो सकती है | लेकिन स्वामी दयानन्द सरस्वती और आर्य समाजी यह कह कर टाल जाते थे की परिक्रमा से यहां अर्थ यह है की मन से यह सोचे की परमात्मा सर्व व्यापक है |

प्रमाण 6: संस्कार विधि में बलि विश्व देव की विधि

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने ये मन्त्र संस्कार विधि में उद्धृत किये हैं होम के लिए | वह थाली में भोग हर दिशा में रखकर ये मन्त्र पढ़ने के लिए निर्देश करते हैं –

Bali Vaishwa Dev - Ways to do yagya by Dayanand Saraswati in Sanskar Vidhi

आर्य समाजी इंद्र आदि को सर्व व्यापक परमात्मा का वाचक मानते हैं | फिर पूर्व में इन्द्राय नमः कहने का क्या अर्थ है? और दक्षिण में यमाय नमः भी कहना निरर्थक है ! यह तभी सार्थक हो सकता है जब यहां हम सगुन साकार देवताओं को मानें जैसा की वेद कहते हैं |
इतना ही नहीं इससे यह भी सिद्ध होता है कि वह भोग लगाना मानते थे |

इसके अतिरिक्त यह भी ध्यान दें की ॐ वनस्पतिभ्यो नमः कह कर वो मूसल और ओखल को भोग लगाने का कह रहे हैं | यह निश्चित रूप से मूर्ती पूजा है !

पाठकों को हम यह भी बता दें उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में भी इन मन्त्रों को उद्धृत किया है |

Verse of bhog lagana in Satyarth Prakash by Dayanand Saraswati

पाठकों और शोधार्थियों के सुविधार्थ हम यहां सत्यार्थ प्रकाश भी निःशुल्क उपलब्ध करवा रहे हैं –

Satyarth Prakash by Dayanand Saraswati free pdf

यह बहुत ही प्रबल प्रमाण है कि स्वामी दयानन्द सरस्वती सगुन साकार परमात्मा, मूर्ती पूजा और भोग लगाना भी मानते थे !

प्रमाण 7: ऋग्वेद और आर्याभिविनय में परमात्मा को भोग लगाना

आर्याभिविनय में ऋग्वेद से स्वामी दयानन्द सरस्वती जी द्वारा उद्धृत इस मन्त्र को देखिये –

Verse from Rigveda quoted in Aryabhivinay where bhog lagana (making offering) to parmatma is mentioned by Dayanand Saraswati

इस मन्त्र में स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ही हमें यह बता रहे हैं कि परमात्मा को ओषधियों का भोग लगाना चाहिए | मन्त्र में परमात्मा को भोग स्वीकार करने की प्रार्थना की जा रही है !

प्रमाण 8: यजुर्वेद भाष्य में लकड़ी के पटेले (Leveller) पर घी शहद चढ़ाना मूर्ति पूजा नहीं तो क्या है ?

यजुर्वेद के बारहवें अध्याय के सत्तरवें मन्त्र पर उनके भाष्य को हिंदी और अंग्रेजी में हम उद्धृत कर रहे हैं –

घृ॒तेन॒ सीता॒ मधु॑ना॒ सम॑ज्यतां॒ विश्वै॑र्दे॒वैरनु॑मता म॒रुद्भिः॑। ऊर्ज॑स्वती॒ पय॑सा॒ पिन्व॑माना॒स्मान्त्सी॑ते॒ पय॑सा॒भ्या व॑वृत्स्व ॥


(विश्वैः) सब (देवैः) अन्नादि पदार्थों की इच्छा करनेवाले विद्वान् (मरुद्भिः) मनुष्यों की (अनुमता) आज्ञा से प्राप्त हुआ (पयसा) जल वा दुग्ध से (ऊर्जस्वती) पराक्रम सम्बन्धी (पिन्वमाना) सींचा वा सेवन किया हुआ (सीता) पटेला (घृतेन) घी तथा (मधुना) सहत वा शक्कर आदि से (समज्यताम्) संयुक्त करो। (सीते) पटेला (अस्मान्) हम लोगों को घी आदि पदार्थों से संयुक्त करेगा, इस हेतु से (पयसा) जल से (अभ्याववृत्स्व) बार-बार वर्त्ताओ ॥

Yajurveda 12 70 verse as translated by Dayanand Saraswati mentioning murti puja on leveller patela

यहाँ भूमि को समतल करने वाले को पटेला कहा गया है | लकड़ी के पटेल पर घी शहद आदि चढ़ाना निश्चित रूप से मूर्ती पूजा ही है !

प्रमाण 9: संस्कार विधि में छुरे की पूजा

संस्कार विधि में जहाँ स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने चूड़ाकर्म संस्कार का वर्णन किया है वहाँ कुश को हाथ में लेकर उसकी प्रार्थना करने को कहते हैं| कुश की प्रार्थना करना मूर्ति पूजा नहीं तो क्या है ? फिर छुरे को हाथ में लेकर भी एक मन्त्र कहने को कहते हैं –

Verses from Sanskar Vidhi of Dayanand Saraswati where worship to Chhura (razor) is mentioned

छुरे को विष्णु की दाँत कह रहे हैं | हम कैसे मान लें की निर्गुण निराकार परमात्मा के दांत छुरे जैसे होते हैं?

छुरे जैसे दाँत मानने के लिए तो यही मानना पड़ेगा की परमात्मा सगुन साकार हैं !

और आगे देखिये –

Verses from Sanskar Vidhi of Dayanand Saraswati where worship to Chhura (razor) is mentioned

छुरे को शिव स्वरुप बोलकर मा हिंसी कहने का अर्थ है की छुरे से प्रार्थना की जा रही है कि वह बालक की हिंसा न करे | लेकिन क्या छुरे से प्रार्थना करना मूर्ति पूजा नहीं है ? यह निश्चित रूप से मूर्ति पूजा ही है चाहे आर्य समाजी इसे मानें या न मानें!

निष्कर्ष

इन सब अन्तः साक्ष्यों से सिद्ध होता है कि स्वामी दयानन्द सरस्वती जी सगुन साकार परमात्मा, मूर्ती पूजा और भोग लगाना भी मानते थे | उनके समय में पता नहीं ऐसी कौन सी सामाजिक परिस्थिति थी जिसकी वजह से उन्हें मूर्ती पूजा का विरोध करना पड़ा, लेकिन उनका अंतर्मन भूरी भूरी परमात्मा के सगुन साकार की भक्ति में लिप्त था | आर्य समाजियों को इन सत्यों को अब स्वीकार करना चाहिए और तदनुकूल अपने अनुयायियों को सत्य के मार्ग पर लगाना चाहिए !