Athato Brahm Jijnasa

1-1-1: अथातो ब्रह्मजिज्ञासा ||

अथ = अब; अतः = यहाँसे; ब्रह्म जिज्ञासा = ब्रह्म विषयक विचार (आरंभ किया जाता है )|

व्याख्या: प्रिय शास्त्र प्रेमियों!

आज से हम एक ऐसी यात्रा प्रारंभ कर रहे हैं, जो बहुत ही गंभीर है | वैदिक धर्म में छह प्रमुख दर्शन शास्त्र कहे गये हैं:

१. जैमिनी की पूर्व मीमांसा

२. कणाद का वैशेषिक दर्शन

३. पतंजलि का योग दर्शन

४. गौतम का न्याय दर्शन

५. कपिल का सांख्य दर्शन

और ६. बादरायण का वेदांत दर्शन

इसमें छठा दर्शन – वेदांत दर्शन, जिसे ब्रह्म सूत्र, शारीरक सूत्र आदि नामों से जाना जाता है, सबसे कठिन और दर्शन शास्त्रों का मुकुट मणि माना जाता है | इस ग्रंथ में ४ अध्याय हैं | प्रत्येक अध्याय में चार पाद हैं | और प्रत्येक पाद में अनेक अधिकरण हैं | उन अधिकरणों में एक या अनेक सूत्र हैं |

इन सूत्रों में भी पहले चार सूत्र सबसे गंभीर हैं | इन्हें चतु:सूत्री वेदांत के नाम से भी जाना जाता है | इनकी विशेषता इस बात से भी समझी जा सकती है कि केवल पहले चार सूत्रों पर विद्वानो ने सैकड़ों पृष्ठ के भाष्य लिखे हैं | उन भाष्य पर हज़ारों पृष्ठ की व्याख्यायें लिखी गयी हैं | हम यदि उन व्याख्याओं को यहाँ संग्रहित कर दें तो आप में से कई महानुभाव डर जाएँगे और अपना अध्ययन पहले सूत्र पर ही समाप्त कर देंगे  | अतएव हमने निश्चय किया है कि पहले चार सूत्रों पर संक्षिप्त व्याख्या देकर आगे के सूत्रों पर विस्तृत व्याख्या दी जाए| सूत्रों पर प्राचीन विद्वानों ने अनेक प्रकार के भाव दिए हैं| कई लोगों ने कई सूत्रों के परस्पर विरोधी अर्थ भी किए हैं | हमारा प्रयास रहेगा की हम प्रत्येक सूत्र के प्राचीन भाष्यकारों के भाष्य आपके लिए उपस्थित करें | जैसे श्रीरामचरितमानस पर प्राचीन व्याख्यकारों के टीकाओं का संकलन श्री अंजनी नंदन शरण जी ने ७ भाग में मानस पीयूष में किया है, वैसा ही कुछ प्रयास हमारा है | देखते हैं इसमें कहाँ तक सफलता मिल पाती है |

तो यह पहला अधिकरण है – जिज्ञासाधिकरण | इसमें पहले अब शब्द का प्रयोग किया गया है | ‘अब’ के प्रयोग से लगता है कि इससे पहले कुछ और बात चल रही थी | ऐसा हुआ एक कंजूस सेठ जी अपनी पत्नी के साथ बज़ार में घूम रहे थे | अचानक एक मिठाई की दुकान देख कर अपनी पत्नी से बोले: “और रसगुल्ले खाओगी?” पत्नी ने हैरान होकर पूछा: “जी अभी तक एक भी कहाँ खाए हैं जो और खाया जाए?” सेठ जी बोले: “अभी पिछ्ले साल ही तो खिलाए थे!”

तो ‘अब’ से यह जान पड़ता है कि पहले जीव संसार में ही उलझा रहता है – संसार के पीछे छिपे अग्यात ब्रह्म में रूचि एक परिपक्वता की निशानी है| आदि जगदगुरु शंकराचार्य जी ने “भज गोविंदम” में लिखा है:

बालस्तावत् क्रीडासक्तः,

तरुणस्तावत् तरुणीसक्तः।

वृद्धस्तावच्चिन्तासक्तः,

परे ब्रह्मणि कोऽपि न सक्तः ॥७॥

बचपन में खेल में रूचि होती है , युवावस्था में युवा स्त्री के प्रति आकर्षण होता है, वृद्धावस्था में चिंताओं से घिरे रहते हैं पर ब्रह्म से कोई प्रेम नहीं करता है ॥७॥

तो ‘अब’ से जनाया कि संसार में बहुत उलझे – अब थोड़ी परमात्मा की जिज्ञासा की जाए |

उस ब्रह्म को जानने के लिए गुरु के पास जाकर जिज्ञासा करनी पड़ती है| शास्त्र भी यही कहते हैं:

परिक्ष्य लोकान कर्मचितान ब्राह्मणो निर्वेदमायान्नस्त्यकृतः कृतेन |

तद्विज्ञानार्थ स गुरुमेवाभिगच्छेत समित्पाणि: श्रोतीयं ब्रह्मनिष्ठम।। (मुण्डकोपनिषद)

यज्ञ , यज्ञादि-कर्म तथा , पठान या अन्य कर्मकांड भी साधक को उस शाश्वत की प्राप्ति नहीं करा सकते हैं परम तत्व की प्राप्ति के पश्चात ही कल्याण है जिसके लिए ब्रह्मनिष्ठ तत्वदर्शी गुरु की शरण में जाये।

गीता भी यही कहती है:

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।

पदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।। (गीता 4/34)

हे अर्जुन परमात्मा को तत्व से जानने के लिए ज्ञानी पुरुष अर्थात गुरु शरण मे जाकर उन्हें दण्डवत प्रणाम कर निष्कपट भाव से परमात्मा के विषय में प्रश्न पूछ , तत्पश्चात उनकी सेवा कर के उस तत्व दर्शन की दीक्षा प्राप्त करे |

श्री रामचरितमानस में भी यही लिखा है:

बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि

महामोह ताम पुंज जासु बचन रबि कर निकर (बाल कांड मंगळाचरण)

तुलसीदास जी कहते है में उस गुरु की चरणों की वंदना करता हूँ जो नर रूप में साक्षात परमात्मा है जिन्होंने मोह रूपी अंधकार को मिटा कर मेरे अंदर प्रकाश भर दिया है।

गुरु बिन भव निधि न तरई कोई | जौं बिरंचि संकर सम होई ||

यदि कोई पुण्य कर्म द्वारा ब्रह्मा के समान सृजन करने की शक्ति या शंकर के समान संहार की शक्ति भी प्राप्त कर ले पर गुरु बिन भाव सागर पार नहीं हो सकता।

भागवत भी कहती है:

तस्मात गुरूम प्रापद्दते जिज्ञासु: श्रेय उत्तमम।

शाब्दे परे च निषणात्म ब्रह्मन्युपशाश्रयम।।(भागवत 11/3/21)

यदि मनुष्य सर्वोत्तम कल्याण चाहता तो उसे शब्द ब्रह्म को जानने वाले, सब संशय मिटाने वाले , शिष्य को ज्ञान प्रदान करने वाले गुरु के पास जाए।

ब्रह्म जिज्ञासा का अर्थ है – ब्रह्म कौन है? ब्रह्म का स्वरूप कैसा है? शास्त्रों में उसका वर्णन किस प्रकार हुआ है ? इत्यादि विषयों का इस ग्रंथ में विवेचन है !

वह ब्रह्म कैसा है? इस पर अगला सूत्र कहते हैं: