1️⃣ भूमिका: आत्मज्ञान या आत्मवंचना?
वो शख्स अपने आप में कुल कायनात था…
दुनिया के हर फ़रेब से मिलवा दिया मुझे।
यही एक वाक्य इस युग की सबसे बड़ी त्रासदी को बयान करता है — जब भ्रम को आत्मज्ञान समझ लिया गया, और आत्मवंचना को अध्यात्म घोषित कर दिया गया।
आज के तथाकथित “आध्यात्मिक जागरण” का सबसे खतरनाक रूप यही है — जब कोई व्यक्ति अपनी निजी धारणाओं को अंतिम सत्य बताने लगता है। उसकी वाणी जितनी ऊँची, भीतर की तर्कहीनता उतनी गहरी। यह वही दौर है जहाँ ज्ञान का स्वरूप बदलकर आत्म-प्रमाणन बन गया है — “मैं बोलता हूँ, इसलिए सत्य हूँ।”
लेकिन आधुनिक मनोविज्ञान इस “आत्मविश्वास” को ज्ञान नहीं, कॉग्निटिव डिस्टॉर्शन कहता है। Neuroscience और Behavioral Psychology बार-बार दिखाते हैं कि जब व्यक्ति अपने ही विचारों को चुनौती देना बंद कर देता है, तब उसके भीतर एक self-reinforcing loop of delusion बन जाता है — वही जिसे भारतीय परंपरा “अहंकार का आवरण” कहती थी।
यह लेख उसी भ्रम के परत-दर-परत विश्लेषण की शुरुआत है।
यहाँ कोई मत-भेद नहीं, बल्कि मस्तिष्क-भेद की जांच होगी — कैसे तथाकथित अध्यात्मिकता वास्तव में एक मनोवैज्ञानिक रोग का विस्तार हो सकती है।
आने वाले शोध-आधारित खंडों में आप देखेंगे कि कैसे Self-Deception, Pseudo-Profundity, Power Illusion, Paranoia, और Grandiose Narcissism— ये पाँचों मिलकर एक व्यक्ति को यह विश्वास दिला देते हैं कि वही सत्य है और बाकी सब अंधकार में।
यहीं से आरंभ होती है वह महागाथा — आत्मज्ञान नहीं, आत्मवंचना की।
इस विषय में हमारा यह वीडियो द्रष्टव्य है –
2️⃣ पहला शोध: आत्मवंचना – जब भ्रम को ज्ञान समझ लिया गया (Self-Deception Psychology)
कभी-कभी किसी व्यक्ति को यह पूरा यकीन हो जाता है कि वह “सत्य” का वाहक है — और वही यकीन उसके सबसे बड़े भ्रम की जड़ बन जाता है।
आधुनिक न्यूरोसाइंस इसे कहता है — Self-Deception, यानी “स्वयं को ही धोखा देना।”
चीन के Sun Yat-sen University के न्यूरोसाइंटिस्ट Mei et al. (2022) ने अपने शोध
“Self-deception: Distorted metacognitive process in ambiguous contexts”
में दिखाया कि जब किसी व्यक्ति के सामने अपने विश्वास को चुनौती देने वाला तथ्य आता है, तो उसका मस्तिष्क objectivity की बजाय ego-protection मोड में चला जाता है।
प्रयोगों में प्रतिभागियों को ऐसे कार्य दिए गए जिनमें वे आसानी से धोखा दे सकते थे।
बाद में उनसे उनके प्रदर्शन का मूल्यांकन करने को कहा गया।
जिन्होंने धोखा दिया, वे न केवल अपने झूठ को सही मान बैठे बल्कि अपने प्रदर्शन को वास्तविकता से बेहतर आँकने लगे — यानी उन्होंने खुद को ही अपनी बनाई कथा से मूर्ख बनाया।
ब्रेन-स्कैन ने दिखाया कि इस प्रक्रिया के दौरान prefrontal cortex और reward circuits सक्रिय हो जाते हैं,
मानो मस्तिष्क झूठ को सत्य मानने पर “इनाम” दे रहा हो।
यही वह neural comfort loop है जो किसी व्यक्ति को अपने ही भ्रम में स्थायी बना देता है।
जब यही प्रवृत्ति “ज्ञान” के क्षेत्र में आ जाए — जहाँ कोई खुद को “जाग्रत” घोषित कर ले — तो वह किसी भी प्रमाण को अस्वीकार कर देता है जो उसकी छवि पर चोट करे।
वह कहेगा, “बाकी सब अंधे हैं, मुझे ही प्रकाश मिला है।”
असल में यह “प्रकाश” नहीं, Self-Deception Bias का परिणाम है — वह मानसिक यंत्रणा जिसमें व्यक्ति अपने झूठे आत्म-चित्र को बचाने के लिए हर तर्क का विकृतिकरण करता है।

इस शोध से यह सिद्ध होता है कि “स्वघोषित आचार्य” का अतिविश्वास अध्यात्म का नहीं,
बल्कि Neural Defense Mechanism का परिणाम है — मस्तिष्क का वह रासायनिक तरीका जिससे वह स्वीकार करने से बचता है कि शायद वह भी गलत हो सकता है।
यहीं से शुरू होती है आत्मवंचना की मनोविज्ञानिक यात्रा,
जहाँ व्यक्ति अपनी असत्य धारणाओं को “आत्मज्ञान” का नाम देकर उन्हें और गहरा करता चला जाता है।
यह बात स्वघोषित आचार्य के कई वीडियो में देखा जाता है | वो किसी भी विषय पर हुए वैज्ञानिक शोधों को सामने नहीं लाते बल्कि सीधे उन्हें खारिज कर देते हैं !
3️⃣ दूसरा शोध: झूठी गहराई और गुस्से की थैरेपी का धोखा (Pseudo-Profound Bullshit & Catharsis Myth)
वह कहता है —
“ज़िंदगी तो ज़ख्म ही देती है… उसका एक ही तरीका है – खूब काम करो, थक जाओ, और अगर ऊर्जा बाकी है तो रैकेट उठा के जाकर फोड़ फाड़ दो।”
सुनने में यह वाक्य “realistic” या “grounded” लगता है, लेकिन यह उसी किस्म का “गूढ़ लगने वाला लेकिन खोखला” वक्तव्य है, जिसकी पहचान आधुनिक मनोविज्ञान ने बहुत पहले कर ली थी।
कनाडा के University of Waterloo के मनोवैज्ञानिक Gordon Pennycook और साथियों ने वर्ष 2015 में
“On the Reception and Detection of Pseudo-Profound Bullshit”
नामक शोध में यह बताया कि कई लोग ऐसे वाक्यों को “गहरा” मान लेते हैं जिनमें कोई वास्तविक अर्थ नहीं होता।
उनके प्रयोगों में रैंडम जनरेटेड वाक्य जैसे “Wholeness quiets infinite phenomena” को भी प्रतिभागियों ने “profound” कहा— सिर्फ इसलिए कि शब्द जटिल थे और आवाज़ आत्मविश्वास से भरी थी।
यही तकनीक “स्वघोषित आचार्य” के प्रवचनों में बार-बार दिखती है—
अर्थहीन वाक्य, लेकिन intonation और self-certainty से भरे हुए।
“डट के काम करो, फोड़ दो, थक जाओ”— यह सुनने में क्रांतिकारी सलाह लगती है, पर यह किसी वैज्ञानिक या दार्शनिक सिद्धांत पर आधारित नहीं। यह केवल Pseudo-Profundity है— ऐसा भाषिक जाल जो गहराई का भ्रम पैदा करता है ताकि श्रोता सोचे कि कोई “अलौकिक सत्य” सामने आया है।

अब ज़रा इस सलाह के दूसरे हिस्से पर आइए— “फोड़-फाड़ दो,” या “go play tennis aggressively when your marital life is in danger.”
यही वह जगह है जहाँ भ्रम-भाषा मानसिक-स्वास्थ्य-भ्रम में बदल जाती है।
Iowa State University Psychologist Brad Bushman ने अपने प्रसिद्ध शोध
“Does Venting Anger Feed or Extinguish the Flame? Catharsis, Rumination, Distraction, Anger, and Aggressive Responding” (2002)
में पाया गया कि गुस्सा निकालना, यानी “venting anger”, वास्तव में गुस्सा कम नहीं करता बल्कि और बढ़ाता है।
इस प्रयोग में जिन प्रतिभागियों को कहा गया कि वे अपने गुस्से के स्रोत के बारे में सोचते हुए पंचिंग बैग पर प्रहार करें, वे बाद में और अधिक आक्रामक और क्रोधित हो गए — जबकि जिन्होंने कुछ भी नहीं किया, उनका गुस्सा खुद-ब-खुद शांत हो गया। बुशमैन ने निष्कर्ष निकाला कि “गुस्सा निकालना आग बुझाने के लिए पेट्रोल डालने जैसा है — यह केवल लौ को भड़काता है।”
अब ज़रा इसे स्वघोषित आचार्य के प्रवचनों से जोड़िए — जहाँ वे कहते हैं, “रैकेट उठा लो, फोड़-फाड़ दो, तब संतुलन मिलेगा।”
विज्ञान इसके ठीक विपरीत कहता है: ऐसी सलाहें व्यक्ति के अमिगडाला को और सक्रिय करती हैं, जिससे हिंसक प्रवृत्ति और दृढ़ होती है।
यानी आक्रोश को “थैरेपी” कह देना मनोवैज्ञानिक भ्रम है — और बुशमैन का यह शोध साफ़ बताता है कि यह “उपचार” नहीं, बल्कि भावनात्मक विष का पुनःइंजेक्शन है।

जब कोई व्यक्ति अपने अनुयायियों से कहे कि वे गुस्से में वस्तुएँ तोड़ें या आक्रामक खेल खेलें ताकि तनाव निकले,
वह न केवल वैज्ञानिक दृष्टि से भ्रम फैला रहा है, बल्कि Mental Healthcare Act 2017 और Rehabilitation Council of India Act 1992 जैसी व्यवस्थाओं की भावना के भी विपरीत जा रहा है, जो बिना मान्यता के “थेरेपी” देने को अनुचित ठहराती हैं।
इस तरह के कथन दोहरी हानि करते हैं—
पहली, वे श्रोताओं को यह विश्वास दिलाते हैं कि आक्रोश ही समाधान है;
दूसरी, वे pseudo-scientific authority की भावना को और गहरा करते हैं:
“मैं कह रहा हूँ तो यह मनोविज्ञान ही होगा।”
वास्तविक मनोविज्ञान कहता है कि anger-venting की बजाय cognitive-reflection और self-regulation ही संतुलन लाती है।
पर “स्वघोषित आचार्य” के प्रवचन इस संतुलन को नहीं, बल्कि emotional catharsis illusion को बढ़ावा देते हैं—
जहाँ शब्दों की गहराई और क्रोध की सलाह मिलकर एक spiritual delusion cocktail तैयार करते हैं।
यही है झूठी गहराई और झूठी थैरेपी का घातक मेल—
एक ऐसी मानसिक चाल जिससे श्रोता को यह लगे कि उसने “उपचार” पा लिया,
जबकि वास्तव में उसके भीतर की असंतुलित ऊर्जा को और गहरा किया गया है।
4️⃣ तीसरा शोध: सत्ता, अहंकार और झूठे ज्ञान का भ्रम (Power, Ego & Illusion of Depth)
जिस व्यक्ति को बार-बार लोग “आचार्य”, “ज्ञानी” या “गुरु” कहकर पुकारें,
वह धीरे-धीरे यह मानने लगता है कि उसे हर विषय की गहराई ज्ञात है।
चाहे वह वेदांत हो, क्वांटम मैकेनिक्स हो, या फ्री विल बनाम डेटरमिनिज़्म जैसा जटिल दार्शनिक विवाद —
सब पर उसका मत “अंतिम सत्य” होता है।
यही वह मनोविज्ञान है जिसे University of Bamberg (Germany) के सामाजिक वैज्ञानिक René Körner और उनके साथियों ने वर्ष 2024 में अपने शोध
“Power and the Illusion of Explanatory Depth”
में उजागर किया।
उनके प्रयोगों में यह पाया गया कि जब किसी व्यक्ति को “power” का अनुभव कराया गया,
तो उसने अपने ज्ञान को वास्तविकता से कहीं अधिक आँका।
जिन्हें यह एहसास हुआ कि वे प्रभावशाली या प्रशंसित हैं,
उन्होंने यह मान लिया कि वे हर विषय में गहराई से समझ रखते हैं—
चाहे उन्हें उस विषय का वास्तविक अध्ययन न हो।

अब ज़रा सोचिए—
“Free Will vs Determinism”, एक ऐसा विषय जिस पर तीन हज़ार वर्षों से दुनिया के सबसे बड़े मस्तिष्क—
अरस्तू, बौद्ध आचार्य नागार्जुन, शंकराचार्य, स्पिनोज़ा, ह्यूम, कांट, और आधुनिक युग में आइंस्टीन व डेनियल डैनेट—
लिखते और बहस करते रहे हैं।
इस विषय पर हर दर्शनशास्त्र विभाग में decades of research होती है,
फिर भी कोई इसे “समाप्त” नहीं कर पाया।
पर एक “स्वघोषित आचार्य” इसे बीस मिनट में सुलझा देता है—
वह भी बिना एक भी संदर्भ, बिना एक भी शोध-पत्र।
कहता है — “फ्री विल जैसी कोई चीज़ नहीं, सब भ्रम है।”
और श्रोता ताली बजा देते हैं, मानो तीन हज़ार साल का दर्शन समाप्त हो गया हो!
यही है Illusion of Explanatory Depth —
जहाँ व्यक्ति को यह भ्रम होता है कि उसने किसी गूढ़ विषय को “पूरी तरह” समझ लिया है,
जबकि वास्तव में उसकी समझ सतही स्तर से आगे नहीं जाती।
इस भ्रम का स्रोत है power + ego का मेल—
जितनी बड़ी “authority” की भावना, उतनी ही कम intellectual humility।
इसका परिणाम होता है overconfidence without comprehension —
एक ऐसा मनोविज्ञान जहाँ गहराई की जगह ऊपरी आत्मविश्वास बैठ जाता है।
“Authority without study is the most dangerous form of ignorance.”
इसीलिए यह लेख पाठकों से निवेदन करता है —
यदि आप सचमुच समझना चाहते हैं कि Free Will vs Determinism का वास्तविक वैज्ञानिक, दार्शनिक और न्यूरोलॉजिकल विमर्श क्या है,
तो मेरे Shaastra Series का यह शोध-आधारित कोर्स अवश्य देखें 👇
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वहाँ आपको मिलेगा वह विमर्श जो न तो बीस मिनट में सिमटता है,
और न किसी एक व्यक्ति की राय पर रुकता है —
बल्कि दर्शन, न्यूरोसाइंस, क्वांटम थ्योरी और भारतीय अद्वैत के संगम पर एक संतुलित, बहुश्रुत दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है।
यही वह अंतर है —
कहीं सतही प्रवचन है,
तो कहीं वास्तविक अनुसंधान का महासागर।
5️⃣ चौथा शोध: संदेह, भय और अतिविश्वास का चक्र (Paranoia & Overconfidence Loop)
Fake आत्मज्ञान का सबसे बड़ा दुश्मन है — संदेह का भय।
और यही भय जब “आत्मविश्वास” का मुखौटा पहन लेता है,
तो उत्पन्न होती है एक घातक मानसिक स्थिति —
जहाँ व्यक्ति मान लेता है कि “बाकी सब गलत हैं, सिर्फ मैं सही हूँ।”
येल यूनिवर्सिटी और यूनिवर्सिटी ऑफ़ शिकागो के मनोवैज्ञानिक Rosa A. Rossi-Goldthorpe, Yuan Chang Leong, Pantelis Leptourgos, और Philip R. Corlett ने वर्ष 2021 में अपने शोध
“Paranoia, Self-Deception, and Overconfidence”
में यही दिखाया कि जब किसी व्यक्ति को यह विश्वास हो जाता है कि दुनिया उसके विरुद्ध है,
तो वह हर विरोध को “षड्यंत्र” या “अज्ञान” के रूप में देखता है।
इस अध्ययन में पाया गया कि जो लोग स्वयं को अत्यधिक “सही” मानते हैं,
वे जब भी आलोचना सुनते हैं, तो उनके मस्तिष्क का belief-updating mechanism बंद हो जाता है।
यानि वे नई सूचना को इस तरह filter कर देते हैं कि पुराना भ्रम बना रहे।
उन्हें यह नहीं लगता कि वे गलती कर सकते हैं;
बल्कि वे यह मान लेते हैं कि बाकी सब लोग धोखे में हैं।
इसी को शोधकर्ताओं ने कहा — “Paranoia–Overconfidence Loop.”
यह एक ऐसा मानसिक जाल है जिसमें “दुनिया मेरे खिलाफ है” और “मैं अकेला जागृत हूँ” —
दोनों भ्रम एक-दूसरे को मज़बूत करते रहते हैं।

अब अगर आप “स्वघोषित आचार्य” के लोकधर्म वाले प्रवचन को ध्यान से सुनें,
तो आपको यह पैटर्न स्पष्ट दिखाई देगा।
वह बार-बार कहते हैं —
“सारे लोकधर्मी मेरे विरोध में हैं।”
यह कथन सिर्फ “मतभेद” नहीं हैं — ये paranoid self-reinforcement के उदाहरण हैं।
इस मानसिक स्थिति में व्यक्ति यह नहीं सोचता कि शायद विरोध में भी कुछ सच्चाई हो सकती है;
वह यह मान लेता है कि हर विरोध उसकी सत्ता को चुनौती दे रहा है।
और जब यह भावना बार-बार दोहराई जाती है,
तो श्रोताओं के मन में एक us-vs-them की मनोवृत्ति बनती है —
एक “हम जागृत, बाकी सब अंधे” वाला संप्रदायिक विभाजन।
यही वह मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है जिससे cult psychology जन्म लेती है।
“Paranoia breeds discipleship; humility breeds dialogue.”
यही अंतर है —
जहाँ सच्चा अध्यात्म “संवाद” से जन्म लेता है,
वहाँ झूठा अध्यात्म “विरोध” को दुश्मनी मानकर अहंकार का किला बना लेता है।
इसलिए जब कोई व्यक्ति “लोकधर्मी मेरे खिलाफ हैं” जैसे वाक्य बार-बार बोलता है,
तो यह उसके “ज्ञान” का नहीं, बल्कि paranoid delusion का प्रमाण होता है —
वह स्थिति जहाँ आत्मज्ञान की जगह अलगाव का नशा बैठ चुका होता है।
6️⃣ पाँचवाँ शोध: आत्ममोह बनाम अध्यात्म – ग्रैंडिओस नार्सिसिज़्म का अनावरण
सच्चा अध्यात्म वहाँ जन्म लेता है जहाँ अहम् का अंत होता है।
पर जब “आत्मज्ञान” का दावा अहम् के विस्तार में बदल जाए,
तो वह अध्यात्म नहीं, आत्ममोह (Grandiose Narcissism) कहलाता है।
वर्ष 2020 में University of Warsaw के मनोवैज्ञानिक Marcin Zajenkowski और साथियों ने एक अध्ययन प्रकाशित किया:
“Grandiose Narcissists and Decision-Making: Impulsive, Overconfident, and Skeptical of Experts.”
इस शोध में उन्होंने बताया कि ग्रैंडिओस नार्सिसिस्ट्स — यानी वे लोग जिन्हें अपने बौद्धिक या नैतिक श्रेष्ठता का अत्यधिक भ्रम होता है —
निर्णय लेते समय तीन विशेष प्रवृत्तियाँ दिखाते हैं:
1️⃣ वे Impulsive होते हैं — जल्दी निष्कर्ष निकालते हैं,
2️⃣ वे Overconfident होते हैं — अपने निर्णय को अंतिम मानते हैं,
3️⃣ और वे Experts से Skeptical रहते हैं — क्योंकि दूसरों की विशेषज्ञता उनके अहंकार को चुनौती देती है।

अब यही प्रवृत्ति उस “स्वघोषित आचार्य” में देखने को मिलती है जो खुद को “आत्मज्ञान” का एकमात्र प्रवक्ता बताता है।
वह कहता है — “संत, शास्त्र – सब outdated हैं।”
“आधुनिक विज्ञान और पुरातन दर्शन – दोनों गलत हैं, सिर्फ मैं सही हूँ।”
लेकिन सबसे स्पष्ट उदाहरण तब दिखा जब फिलॉसफ़र सीरोही (Sirohi) ने उनके कार्यक्रम में
एक दार्शनिक प्रश्न रखा — एक विनम्र, लेकिन वैचारिक चुनौती।
सीरोही ने उनसे पूछा कि यदि वे “Absolute Truth” की बात कर रहे हैं,
तो क्या वह Absolute भी अनुभव की सीमा से परे नहीं है?
यह प्रश्न न तो आक्रामक था, न असभ्य — बल्कि एक सच्चे दार्शनिक का सामान्य प्रतिप्रश्न था।
पर प्रतिक्रिया क्या मिली?
उन्हें वहाँ से जाने को कहा गया।
और साथ ही यह कहा गया — “तुम समझ नहीं सकते, तुम्हारा स्तर अभी वहाँ नहीं पहुँचा है।”
यही है Narcissistic Fragility —
वह स्थिति जहाँ व्यक्ति आलोचना नहीं,
बल्कि अपने “Divine Ego” पर किसी भी स्पर्श को personal attack समझ लेता है।
इस एक दृश्य में पूरी प्रवृत्ति उजागर हो जाती है:
जो व्यक्ति “Self-Realization” की बात करता है,
वह वास्तव में Self-Idolization का शिकार होता है।
वह संवाद नहीं करता, वह प्रवचन करता है।
वह प्रश्नों से नहीं सीखता, वह प्रश्नों को अपमान समझता है।
मनोविज्ञान इसे कहता है — Cognitive Rigidity with Ego Preservation Loop —
एक ऐसी मानसिक युक्ति जिसमें व्यक्ति सत्य की खोज नहीं करता,
बल्कि अपने “Guru Persona” को बचाने के लिए हर तथ्य को मोड़ देता है।
“The higher the ego climbs, the smaller truth appears.”
जब कोई व्यक्ति “Absolute Truth” का दावा करे,
पर “Relative Question” से डर जाए —
तो समझ लीजिए, वह अध्यात्म नहीं, Grandiose Narcissism है।
7️⃣ कानूनी पड़ताल: जब प्रवचन टकराए IPC 504, MHCA 2017 और RCI 1992 से
ज्ञान की भाषा जब उपचार की भाषा बन जाए,
तो वह सिर्फ दर्शन नहीं रहती — वह कानूनी जिम्मेदारी भी बन जाती है।
जब कोई व्यक्ति अपने प्रवचनों में कहे —
“गुस्सा है तो जाकर रैकेट फोड़ दो।”
“काम का बोझ बढ़ाओ, aggression निकालो, वहीं शांति मिलेगी।”
तो यह प्रश्न उठता है —
क्या ऐसी सलाहें प्रेरणादायक वाणी हैं या मनोवैज्ञानिक हस्तक्षेप?
और अगर वे हस्तक्षेप हैं, तो क्या इनके पीछे मान्यता प्राप्त प्रशिक्षण है?
यही वह धुंधला क्षेत्र है जहाँ अध्यात्म और कानून आमने-सामने खड़े हो जाते हैं।
भारतीय दंड संहिता की धारा 504 (IPC 504) कहती है —
“Intentional insult with intent to provoke breach of peace.”
यानी अगर किसी वक्तव्य से लोगों में उत्तेजना या हिंसक प्रवृत्ति फैलने की संभावना हो,
तो वह वक्तव्य दंडनीय माना जा सकता है।
तो सवाल यह है —
क्या “फोड़-फाड़” जैसी सलाह भावनात्मक राहत है, या सार्वजनिक आक्रोश को वैध ठहराने का माध्यम?
क्या इसे “थैरेपी” कह देना कानून के दायरे से बच निकलने का रास्ता है?
इसी संदर्भ में Mental Healthcare Act 2017 (MHCA) यह स्पष्ट करता है कि
मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी कोई भी गतिविधि, सुझाव या हस्तक्षेप केवल योग्य पेशेवरों द्वारा किया जा सकता है।
यह अधिनियम न केवल रोगियों की सुरक्षा का प्रावधान करता है,
बल्कि यह भी कहता है कि misleading or harmful mental-health practices कानूनन अस्वीकार्य हैं।
और फिर आता है Rehabilitation Council of India Act, 1992 (RCI Act) —
जो यह तय करता है कि कोई भी व्यक्ति यदि counselling या psychological advice देता है,
तो उसे RCI में पंजीकृत (licensed) होना चाहिए।
अन्यथा यह कृत्य unqualified practice माना जाएगा —
जो सीधे-सीधे पेशेवर मानकों का उल्लंघन है।
अब सोचिए —
जब कोई “स्वघोषित आचार्य” मनोविज्ञान, मानसिक स्वास्थ्य और आक्रोश की थैरेपी पर बोल रहा हो
बिना किसी प्रमाणित प्रशिक्षण या RCI लाइसेंस के,
तो क्या वह केवल “ज्ञान” बाँट रहा है, या “अनधिकृत मनोवैज्ञानिक प्रयोग” कर रहा है?
“Where there is spiritual advice, there is moral duty;
but where that advice enters psychology, there is legal accountability.”
इसलिए यह प्रश्न अब व्यक्तिगत नहीं, सामाजिक है —
क्या हम ऐसे व्यक्तियों को ‘गुरु’ कहें या ‘unlicensed therapist’?
क्या भावनाओं से खेलना अध्यात्म है या अपराध के कगार पर खड़ी लापरवाही?
कानून का उद्देश्य दमन नहीं — सुरक्षा है।
और जब प्रवचन सार्वजनिक चेतना को प्रभावित करने लगें,
तो यह सुरक्षा और भी आवश्यक हो जाती है।
8️⃣ अंतिम उद्घोष: जब हर सत्य पर अंधविश्वास का ठप्पा लगाना पड़े
अब आख़िरी बात बहुत सीधी है—
क्योंकि अब खेल वैसा ही चलेगा जैसा उन्होंने बनाया है।
वर्षों से स्वघोषितआचार्य प्रशांत जी अपने प्रवचनों में बिना किसी शोध या प्रमाण के हर बात को “अंधविश्वास” कह देते हैं—
कभी भक्ति को, कभी कर्मकांड को, कभी परंपरा को, कभी विज्ञान से जुड़े अध्यात्म को।
तो अब आगे से नियम सरल है — जो मापदंड उन्होंने समाज के लिए बनाया, वही मापदंड अब उन पर लागू होगा।
अगर वे कहें — “रिवाज़ व्यर्थ हैं” — तो बस कहिए : “यह तो अंधविश्वास है।”
अगर वे कहें — “भक्ति से कुछ नहीं होता” — तो उत्तर दीजिए : “यह भी अंधविश्वास है।”
यहाँ तक कि अगर वे कहें — “2 + 2 = 4,” तो मुस्कराइए और कहिए — “यह भी अंधविश्वास है।”
हम यह नहीं कह रहे कि 2 + 2 = 4 गलत है;
यह तो व्यंग्य का आईना है — यह दिखाने के लिए कि बिना किसी प्रमाण या तर्क के हर बात को “अंधविश्वास” कह देना स्वयं में सबसे बड़ा अंधविश्वास है।
अब से नियम यही रहेगा — जो दावा करें, प्रमाण लाएँ; वरना वही ठप्पा वापस—अंधविश्वास।
क्योंकि सत्य का अर्थ केवल कहना नहीं, साबित करना है।
“जो दूसरों की आस्थाओं को अंधविश्वास कहे,
उसे अपने तर्कों का भी परीक्षण करवाना होगा।”
अब समय आ गया है कि “आत्मज्ञान” और “अहंकार” के बीच की रेखा स्पष्ट हो।
ज्ञान का सम्मान तभी संभव है जब हर प्रवचन, हर विचार, और हर दावा
जवाबदेही और प्रमाण के साथ रखा जाए — न कि केवल स्वर के आत्मविश्वास से।

