धिक्कार, गाली और समाधान? आर्य प्रशांत की जल दृष्टि का पोस्टमार्टम

🔰 प्रस्तावना — जब समाधान गाली में बदल जाए

कुछ लोग समस्या का हल ढूंढते हैं, कुछ हल की आड़ में गुस्से का प्रवचन देते हैं। YouTube वीडियो “वॉटर क्राइसिस का कारण और समाधान (2024)” में आर्य प्रशांत ने पर्यावरण प्रेम के नाम पर इतना घृणित भाषण दिया, कि हम सोचने को मजबूर हो गए:

“क्या ये जल संकट का समाधान है या समाज को तोड़ने की नई मुहिम?”


🔥 भाग 1: “गाली देने का मन करता है!” — यह समाधान है?

आर्य प्रशांत का कहना है कि विश्व में जितना प्रदूषण होता है वो 5% अमीर मिल के इतना कर देते हैं जितना शेष 95% नहीं कर पाएंगे | अतएव उन्हें अमीरों को धिक्कार देना चाहिए | अमीरों को सत्कार नहीं देना चाहिए, धिक्कार देना चाहिए | इतना ही नहीं आर्य प्रशांत का कहना है की उन्हें ऐसे लोगों को गाली देने का मन कर रहा है !

हमने बस प्रश्न उठाया:

क्या एक प्रभावशाली सार्वजनिक व्यक्ति द्वारा गाली देने की इच्छा व्यक्त करना, भाषण की स्वतंत्रता है या घृणा को सामान्य बनाने की कोशिश?

क्या इस प्रकार की भाषा युवाओं को हिंसक और आक्रामक विचारों की ओर प्रेरित कर सकती है? क्या यह समाज में मानसिक विक्षोभ पैदा करने वाली हो सकती है?


🧠 भाग 2: क्या यह मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम 2017 (MHCA 2017) के तहत जाँच योग्य मामला है?

हमने केवल पूछा:

क्या मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम 2017 के अंतर्गत ऐसी प्रवृत्तियाँ मानसिक पीड़ा फैलाने वाली मानी जा सकती हैं?

“Should psychological or legal institutions investigate whether such emotional volatility and public hostility warrant assessment under MHCA 2017 Section 89 — as a potential risk to self or society?”

(इस प्रश्न को वीडियो में फ्लैश किया गया। आप भी सोचिए।)


🕯️ भाग 3: नफ़रत के शब्द, और सवाल

हमने यह भी देखा कि कैसे आचार्य जी शब्दों में क्रोध, नफ़रत और नैतिक श्रेष्ठता भरकर लोगों को अपराध-बोध में डुबोते हैं।

लेकिन इस प्रवृत्ति की वैज्ञानिक विवेचना हमने पहले ही कर दी थी, अपनी पिछली वीडियो में:

📺 Gaali Guru – Why Dubai?

उसमें हमने विस्तृत चर्चा की थी इस शोधपत्र की:

📘 शोध पत्र:

📘 शोधपत्र शीर्षक:

Heroes or Villains? The Dark Side of Charismatic Leadership and Unethical Pro-organizational Behavior

✍️ लेखकगण:
शुए झांग, लियांग लियांग, गयांग तियान, येज़ुआंग तियान (हर्बिन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, चीन)
📅 प्रकाशन वर्ष:
2020
📰 जर्नल:
International Journal of Environmental Research and Public Health

🔍 शोध का उद्देश्य और पृष्ठभूमि:

आमतौर पर करिश्माई (charismatic) नेता को प्रभावशाली, प्रेरणादायक और संगठन के लिए वरदान माना जाता है। परंतु यह शोध एक जरूरी प्रश्न उठाता है:
क्या यही करिश्मा अंधभक्ति, मानसिक नियंत्रण और अनैतिकता की नींव बन सकता है?

लेखकों ने सिद्ध किया कि करिश्माई नेतृत्व का एक “अंधेरा पक्ष” होता है, जहाँ नेता का प्रभाव इतना गहरा होता है कि अनुयायी नेता के इशारे पर अनैतिक कार्य करने लगते हैं — यह सोचकर कि इससे संगठन या समूह को लाभ होगा।

📌 मुख्य निष्कर्ष:

  1. करिश्माई नेता अपने अनुयायियों में मानसिक सुरक्षा की भावना पैदा करते हैं।
  2. जब अनुयायी यह महसूस करते हैं कि उनके निर्णयों की कोई निंदा नहीं होगी, वे नेता के नाम पर अनैतिक कार्य करने को भी तैयार हो जाते हैं।
  3. यदि प्रदर्शन का दबाव अधिक हो, तो ये अनैतिक कार्य और अधिक बढ़ जाते हैं।

🔹 यह शोध दिखाता है कि करिश्माई नेता कैसे लोगों की नैतिकता को मोड़ते हैं

यह शोध हमें आगाह करता है — सिर्फ करिश्मा और शब्दजाल से मोहित मत हो जाइए।
ऐसे प्रभावशाली व्यक्तित्व जहाँ आलोचना की जगह नहीं होती, जहाँ “गुरु” के नाम पर सबकुछ जायज़ है, वहाँ समूह एक ऐसे मोड़ पर पहुँच सकता है जहाँ सच और झूठ, नैतिकता और अंधभक्ति में अंतर खो जाता है।

ऐसे वातावरणों में न केवल अनुयायी भटकते हैं, बल्कि समाज को भी मनोवैज्ञानिक रूप से नुकसान पहुँचता है।

📉 भाग 4: क्या सिर्फ अमीर ही जल संकट के गुनहगार हैं?

आचार्य जी ने दावा किया कि केवल 5% अमीर लोग ही 95% प्रदूषण के लिए जिम्मेदार हैं। लेकिन हमने प्रस्तुत किया:

📘 शोध पत्र:

Social Tipping Dynamics for Stabilizing Earth’s Climate by 2050
(2020 में Proceedings of the National Academy of Sciences (PNAS) में प्रकाशित)

👥 लेखकों की पृष्ठभूमि (Authors’ Background):

  1. Ilona M. Otto – क्लाइमेट इकोनॉमिक्स व सोशल सिस्टम ट्रांसफॉर्मेशन की विशेषज्ञ, पॉट्सडैम इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट इम्पैक्ट रिसर्च से जुड़ी हैं।
  2. Jonathan Donges – जटिल सामाजिक-पर्यावरणीय प्रणालियों और tipping points पर कार्यरत प्रमुख वैज्ञानिक।
  3. Armin Leitzke, Hans Joachim Schellnhuber – जर्मनी के प्रतिष्ठित पर्यावरण वैज्ञानिक, जो नीति निर्धारण, समाज परिवर्तन और जलवायु संकट पर शोध कर चुके हैं। Schellnhuber, जर्मन चांसलर को भी सलाह देते रहे हैं।

इन लेखकों की गिनती interdisciplinary thought leaders में होती है जो समाज, विज्ञान और नीति को जोड़ने का कार्य करते हैं।

📄 शोधपत्र का सारांश (Summary in Hindi):

इस पेपर में बताया गया है कि समाज में “social tipping elements” (जैसे शिक्षा, वित्त, सामाजिक मान्यता) के माध्यम से व्यापक जलवायु कार्रवाई को तेजी से बढ़ाया जा सकता है। मुख्य बिंदु:

  • जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए केवल तकनीकी समाधान पर्याप्त नहीं हैं।
  • हमें ऐसे “social tipping points” को सक्रिय करना होगा जो समाज में व्यवहारिक क्रांति लाएं।
  • इस तरह के tipping points में शामिल हैं:
    • जलवायु शिक्षा को व्यापक बनाना,
    • fossil fuel से divestment करना,
    • सामाजिक आदर्शों को बदलना,
    • नीति-निर्माताओं पर प्रभाव डालना।
  • छोटे लेकिन रणनीतिक समूह बड़े सामाजिक बदलाव को जन्म दे सकते हैं।

यह पेपर दर्शाता है कि जब एक विचार या व्यवहार सामाजिक रूप से फैलता है, तो वो tipping point बन सकता है – जिससे क्रांतिकारी बदलाव आते हैं।

🔹 इस शोध में कहीं भी “5% बनाम 95%” जैसा वर्ग संघर्ष नहीं बताया गया।
🔹 इसमें लिखा है कि “Documented instances of technology and business solutions show
that a 17 to 20% market or population share can be sufficient to cross the tipping point”

यानि, यह बदलाव केवल अमीरों को कोस कर नहीं, बल्कि सभी क्षेत्रों की जागरूकता से लाया जा सकता है।

इसके अतिरिक्त पूरी दुनिया को प्रयास करने की भी आवश्यकता नहीं है | केवल 17 से 20% लोगों के प्रयास से 2050 तक पर्यावरण को नियंत्रित किया जा सकता है |

2050 zero net emissions vs acharya prashant propagating fake theories

लेकिन फिर भी आर्य प्रशांत लोगों को अमीरों को धिक्कारने के लिए प्रेरित करते हैं !

अब हम पूछते हैं –

❓“क्या ये जानबूझकर वैज्ञानिक शोधों को दरकिनार कर जनता को mislead कर रहे हैं?”

❓“क्या यह व्यवहार ‘intellectual gaslighting’ है – जहां सिद्ध वैज्ञानिक प्रमाणों को झुठलाकर अपने विचार थोपा जा रहा है?”

क्या यह विचारधारा समाज को धनी और निर्धन के बीच वैमनस्य की आग में झोंकने का कार्य कर रही है?

और यदि हाँ, तो क्या इसे मानसिक स्वास्थ्य संस्थानों और क़ानूनी निकायों द्वारा गहनता से जाँचा नहीं जाना चाहिए?

👉 क्या यह Section 89 IPC (मानसिक क्षति पहुँचाना) या Section 108 (उपद्रव के लिए उत्तेजन) के अंतर्गत जांच योग्य है?

👉 क्या किसी विचारधारा के नाम पर ऐसी भाषा का प्रचार आईटी अधिनियम की धारा 67 / आईपीसी 292 / 294 के अंतर्गत आ सकता है?



🚨 भाग 5: क्या संस्थानों को जवाबदेही नहीं होनी चाहिए?

जब ऐसे व्यक्ति IITs, IISc, BITS Goa, या Berkeley जैसे संस्थानों में भाषण देते हैं — और सार्वजनिक रूप से गाली, नफ़रत और आक्रोश फैलाते हैं — तो हमने पूछा:

“Should institutions take responsibility if such emotionally volatile lectures cause psychological harm to students or the speaker himself?”

यह कोई आरोप नहीं — एक संस्थागत reflection है।


🔚 निष्कर्ष — ये समाधान है या समाज के लिए खतरा?


अगर कोई व्यक्ति सार्वजनिक मंच से यह कहे कि “गाली देने का मन करता है” और बार-बार अपने आक्रामक व्यवहार को वैचारिक आवरण में प्रमोट करे, तो क्या ऐसे व्यक्ति से सवाल करना हमारा नैतिक और सामाजिक धर्म नहीं बनता? हमने अपने वीडियो में स्पष्ट प्रमाणों के साथ दिखाया है कि कई बार जब लोग उनके सिद्धांतों का अंधानुकरण करते हैं, तो उनके जीवन में मानसिक दुख, उलझन और सामाजिक अलगाव बढ़ता है। दूसरी ओर, जब कोई दर्शक प्रश्न पूछता है या असहमत होता है, तो स्वयं वक्ता इस हद तक क्षुब्ध हो जाते हैं कि अपना संयम खो बैठते हैं और स्पष्ट रूप से क्रोध और आक्रोश की स्थिति में आ जाते हैं। क्या यह किसी गहरे भीतरी असंतुलन का संकेत नहीं है? क्या यह समय नहीं है जब मनोवैज्ञानिक संस्थाएं शोध करें कि क्या ऐसे व्यक्तियों को, जो इतने अस्थिर प्रतीत होते हैं, सोशल मीडिया का सार्वजनिक उपयोग करने देना चाहिए या नहीं?


🪔 धर्म के नाम पर दोषारोपण नहीं, जिम्मेदारी चाहिए।

शास्त्र (Shaastra) का उद्देश्य सिर्फ आलोचना नहीं — धार्मिक मूल्यों की रक्षा, मानसिक स्वास्थ्य की चिंता, और तथ्यों से साक्षात्कार है।