🔥 भूमिका (Intro)
देश के प्रतिष्ठित तकनीकी संस्थानों में से एक MANIT Bhopal ने हाल ही में एक बेहद विवादास्पद व्यक्ति — स्वघोषित आचार्य आर्य प्रशांत — को आमंत्रित कर लिया, जो न तो किसी भी मान्यता प्राप्त संस्थान से मनोविज्ञान में डिग्री रखते हैं और न ही RCI Act, 1992 के तहत लाइसेंस प्राप्त मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ हैं। इस कार्यक्रम में उन्होंने नशीली दवाओं की लत, शराब, सिगरेट और युवाओं की जीवनशैली पर अपनी निजी विचारधारा को प्रस्तुत करते हुए कई वैज्ञानिक रूप से गलत, मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से भ्रामक और कानून के विरुद्ध सलाहें दीं।
कार्यक्रम में उन्होंने प्लेसमेंट की तैयारी, माँ की सलाह, कैरियर का पीछा करना, उद्यमिता और यहां तक कि सोशल मीडिया पर रील्स देखना — इन सबको नशा घोषित कर दिया। उन्होंने यहां तक कह दिया कि किसी भी प्रकार की नशा मुक्ति केंद्र (rehabilitation) मदद नहीं करेगा और सभी प्रयास व्यर्थ हैं।
इस विषय में हमारा यह वीडियो द्रष्टव्य है –
⚖️ RCI एक्ट और अन्य क़ानूनी उल्लंघन: क्या आर्य प्रशांत पर कार्रवाई होनी चाहिए?
1. RCI Act 1992
भारत में मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता को बनाए रखने के लिए 1992 में एक ऐतिहासिक कानून पारित किया गया था — Rehabilitation Council of India Act (RCI Act), 1992। इस कानून के अंतर्गत, किसी भी मानसिक रोग, नशा मुक्ति, या पुनर्वास संबंधित सेवा को देने के लिए RCI से प्रमाणित लाइसेंस या मान्यता प्राप्त डिग्री अनिवार्य है। बिना लाइसेंस के कोई भी व्यक्ति “काउंसलिंग”, “थैरेपी”, या “नशा मुक्ति प्रवचन” नहीं दे सकता।
🔍 RCI एक्ट की धारा 13(2)(c) में स्पष्ट उल्लेख है कि कोई भी व्यक्ति जो RCI की स्वीकृति प्राप्त नहीं है, वह स्वयं को ‘rehabilitation professional’ कहकर सेवा नहीं दे सकता।
🔍 धारा 22 के अनुसार, ऐसी गैर-प्रमाणित सेवा देने पर जेल और जुर्माने दोनों की सजा का प्रावधान है।
📍 RCI की आधिकारिक वेबसाइट पर प्रकाशित दिशानिर्देशों में भी बार-बार चेतावनी दी गई है कि जो व्यक्ति पंजीकृत नहीं हैं वे न तो किसी थैरेपी का दावा कर सकते हैं, और न ही मानसिक रोगों का इलाज करने के नाम पर कोई सार्वजनिक संवाद चला सकते हैं।
📺 ऐसे में यदि कोई स्वयंभू “आचार्य” या “संत”, जो न तो RCI से पंजीकृत हैं, और न ही किसी मेडिकल/क्लिनिकल साइंस की डिग्री रखते हैं, वह एक राष्ट्रीय संस्थान जैसे MANIT Bhopal के मंच पर आकर Addiction जैसे संवेदनशील न्यूरो-साइकोलॉजिकल डिसऑर्डर पर अपने “मत” देने लगें, तो यह सीधा-सीधा RCI एक्ट का उल्लंघन है।
🎓 एक इंजीनियरिंग कॉलेज कोई ऐसी जगह नहीं हो सकती जहाँ गैर-कानूनी थैरेपी प्रवचन दिए जाएँ और छात्रों की मानसिक संरचना के साथ प्रयोग किया जाए।
👉 इस पूरे आयोजन में न केवल वक्ता की जवाबदेही बनती है, बल्कि मंच प्रदान करने वाली संस्था की भी कानूनी और नैतिक ज़िम्मेदारी बनती है कि वह RCI एक्ट का पालन सुनिश्चित करे।
🚨 2. Mental Healthcare Act 2017 – मानसिक स्वास्थ्य अधिकारों का उल्लंघन
इस अधिनियम के तहत, मानसिक रूप से अस्थिर व्यक्ति को वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित सहायता देना अनिवार्य है। बिना प्रमाण के केवल “सोच बदलो” कहना, और दवाओं को नकारना, नैतिक और वैधानिक दोनों रूप से खतरनाक है। Arya Prashant यह सलाह देते हैं कि “दवा मत लो, सोच बदलो”, जो कि मानसिक स्वास्थ्य के अधिकारों का उल्लंघन है।
🧪 3. Drugs and Magic Remedies (Objectionable Advertisements) Act, 1954 – धारा 3 और 4
“सिर्फ विचार बदलने से नशा छूट जाएगा” जैसी बातें “जादुई इलाज” की श्रेणी में आती हैं। इस कानून की धारा 3 और 4 के अनुसार, ऐसे किसी भी इलाज का प्रचार अवैध है, जिसका कोई वैज्ञानिक प्रमाण न हो — विशेषकर मानसिक रोग, नशा, और यौन रोग जैसे संवेदनशील मामलों में।
🧑⚖️ 4. Consumer Protection Act 2019 – Misleading Advertisement
अगर कोई व्यक्ति खुद को थेरैपिस्ट कहकर सेवा प्रदान करता है, और वह सेवा वैज्ञानिक रूप से वैध नहीं है, तो वह misleading advertisement और unfair trade practice की श्रेणी में आता है। धोखाधड़ी के शिकार छात्र, इस अधिनियम के तहत क्लास एक्शन केस दाखिल कर सकते हैं।
📵 5. IT Act Section 66D – Online धोखाधड़ी और Impersonation
Arya Prashant अगर डिजिटल प्लेटफार्मों पर खुद को “licensed therapist” जैसा दर्शाते हैं — जबकि उनके पास कोई वैधानिक प्रमाण नहीं है — तो यह धारा 66D के अंतर्गत online impersonation और धोखाधड़ी मानी जा सकती है।
🧬 6. Fundamental Rights Violation – Article 21 का उल्लंघन
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत हर नागरिक को स्वास्थ्य और गरिमामय जीवन का अधिकार प्राप्त है। यदि कोई मानसिक रूप से अस्थिर छात्र प्रोफेशनल हेल्प न लेकर ऐसे pseudo-therapy पर भरोसा करे और नुकसान उठाए — तो यह Fundamental Right के हनन की श्रेणी में आता है।
🔍 7. Medical Responsibility Escape – Accountability का Loophole
Arya Prashant किसी भी रजिस्टर्ड काउंसलिंग निकाय के अंतर्गत नहीं आते। इसलिए यदि उनकी सलाह से किसी छात्र को नुकसान होता है, तो उनके विरुद्ध कोई सीधा malpractice केस नहीं बनता — जो कि डॉक्टरों के मामले में आसानी से बनता है। यह एक खतरनाक loophole है, जिससे पारंपरिक कानून व्यवस्था की पकड़ से ये pseudo-gurus बच निकलते हैं।
🧠 Neuroscience क्या कहता है? (Scientific Refutation)
आधुनिक न्यूरोसाइंस इस बात को स्पष्ट रूप से स्थापित कर चुका है कि नशे की लत (Addiction) कोई “चरित्र दोष” या “समाज का प्रभाव” भर नहीं है — यह एक गंभीर न्यूरोबायोलॉजिकल डिसऑर्डर है। वैज्ञानिक शोधों से यह सिद्ध हुआ है कि नशे की लत हमारे मस्तिष्क के reward circuit, विशेषतः dopaminergic system को बदल देती है, जिससे व्यक्ति की इच्छा-शक्ति, निर्णय क्षमता, और व्यवहार नियंत्रण की शक्ति क्षीण हो जाती है।
📌 प्रमाण:
1. Pawar (2018) के शोध “Neurobiology of Addiction” में बताया गया है कि किस प्रकार मस्तिष्क के mesolimbic pathway में बदलाव addiction की निरंतरता के लिए ज़िम्मेदार होते हैं। यह शोध एम्स (AIIMS) जैसे संस्थान में पढ़ाया जाता है।

2. Oxford द्वारा प्रकाशित Neurobiology of Addiction and Treatment (2022) स्पष्ट रूप से कहता है कि नशा एक “chronic relapsing brain disorder” है और इसका इलाज केवल सामाजिक प्रवचनों से नहीं, बल्कि वैज्ञानिक चिकित्सा, काउंसलिंग, और न्यूरोबायोलॉजिकल हस्तक्षेप से संभव है।

3. DSM-5 (Diagnostic and Statistical Manual of Mental Disorders – APA) ने Substance Use Disorder को एक clinically diagnosable psychiatric condition माना है, जिसके इलाज के लिए प्रमाणिक विशेषज्ञता और प्रमाणित उपचार प्रक्रियाएँ आवश्यक हैं।

🛑 अतः जब कोई अनपंजीकृत व्यक्ति, जो न तो RCI से लाइसेंस प्राप्त है, और न ही मेडिकल या क्लिनिकल साइंस की कोई डिग्री रखता है, वह अपने वीडियो में कहता है कि “rehabilitation काम नहीं करता” या “placement addiction है”, तो यह न केवल गैर-जिम्मेदाराना है, बल्कि विज्ञान और चिकित्सा जगत के साथ धोखा भी है।
👉 यह विज्ञान का अपमान है, न कि विचार का अवदान।
🚨 झूठी समानताएँ और मनगढ़ंत सिद्धांत – एक स्व-घोषित आचार्य का भ्रांतिजाल
इस तथाकथित “मनौवैज्ञानिक” (जो न तो RCI से पंजीकृत हैं, न किसी प्रमाणित चिकित्सकीय संस्था से प्रशिक्षित) के भाषण में सबसे गंभीर और शर्मनाक दावा यह है कि—
“अगर एक माँ अपने बेटे से कहती है कि अब नौकरी मिल गई है, अब शादी कर लो—तो यह भी नशे की श्रेणी में आता है।”
क्या कोई भी गंभीर वैज्ञानिक, चिकित्सक या मनोविश्लेषक इस प्रकार के बयान को जायज़ ठहरा सकता है?
📌 यह न केवल वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ग़लत है, बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ में भी अत्यंत अपमानजनक है। माँ का यह सुझाव जीवन के सामान्य क्रम और परंपरागत सामाजिक सोच का हिस्सा होता है—उसे “intoxication” कह देना DSM-5 या ICD-11 में वर्णित किसी भी डिसऑर्डर की परिभाषा में नहीं आता।
यहाँ आर्य प्रशांत एक बेहद ख़तरनाक चाल चलते हैं—वे सामाजिक संरचनाओं और जैविक रोगों के बीच मनमाने रूप से समानताएं गढ़ते हैं। सिगरेट, शराब, ड्रग्स जैसे पदार्थों से होने वाले addiction की न्यूरोबायोलॉजिकल नींव को पूरी तरह नज़रअंदाज़ करके, वे “माँ की सलाह” को भी उसी कैटेगरी में रख देते हैं।
📚 हमने ऊपर जिन दो शोधपत्रों को प्रस्तुत किया है:
वे स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं कि addiction का जन्म dopaminergic pathways, mesolimbic reward system, genetic vulnerability, और neurochemical imbalance से होता है—ना कि माँ के आग्रह या समाज की उम्मीदों से!
🧠 जब कोई व्यक्ति नशे की लत में होता है, तो यह एक मानसिक व शारीरिक रोग है, जिसका उपचार trained psychiatrist या rehabilitation programs से ही संभव है। लेकिन आर्य प्रशांत इस विज्ञान को खारिज कर समाज की सामान्य बातचीत और परंपरा को भी disorder बना देते हैं—जिससे हजारों युवक भ्रमित हो सकते हैं।
यह सामाजिक विमर्श में विष घोलने जैसा है, जिससे बच्चे अपने माता-पिता से कट जाएँ, सामान्य जीवन को रोग समझें और चिकित्सा प्रणाली को अविश्वसनीय मानें।
हमने अन्धविश्वास 2.0 के चौथे भाग में आपको बताया था की कैसे कल्ट लीडर व्यक्ति का परिवार से रिश्तों को कमजोर कर देता है | यह बात भी कुछ वैसी ही है |

आर्य प्रशांत अपने व्याख्यान में केवल माँ-बेटे के रिश्ते को ही नहीं, बल्कि “placement की तैयारी” को भी addiction कहकर संबोधित करते हैं। उनका तर्क है:
“अगर कोई छात्र दिन-रात प्लेसमेंट की तैयारी कर रहा है, तो वह भी एक addiction है।”
क्या यह एक जिम्मेदार वक्तव्य है?
📌 युवाओं का करियर बनाना, कड़ी मेहनत से जीवन संवारना, और प्लेसमेंट की दौड़ में आगे बढ़ना—कोई मानसिक रोग नहीं, बल्कि यह एक संगठित जीवन-दृष्टि और लक्ष्यबद्ध प्रयास है। इसे ‘addiction’ कह देना न केवल अविवेकपूर्ण है, बल्कि युवाओं के आत्मबल को तोड़ने वाला भी है।
🔬 Addiction की परिभाषा DSM-5 और ICD-11 जैसे अंतरराष्ट्रीय मापदंडों में साफ़ तौर पर दी गई है: यह एक neurobiological disorder है, जो dopaminergic reward systems के विकृति के कारण उत्पन्न होता है, ना कि किसी का करियर बनाने की इच्छा से।
📚 हमने जिन दो शोधपत्रों को उद्धृत किया है (Dr. Pawar 2018 और Oxford 2022), वे addiction को स्पष्ट रूप से neural imbalance, receptor desensitization, और behavioral compulsion से जोड़ते हैं—कहीं भी “placement preparation” को addiction की श्रेणी में नहीं रखा गया।
👨🏫 यहाँ आर्य प्रशांत वास्तविक मानसिक रोगों और जीवन की स्वाभाविक चुनौतियों के बीच मनमानी समानताएं बना देते हैं। यह न केवल medical science का मज़ाक उड़ाना है, बल्कि युवाओं में चिंतनजन्य भ्रम और दिशाहीनता उत्पन्न करना भी है।
❗चेतावनीपूर्ण बात यह है कि इस प्रकार की भाषाई बाज़ीगरी, युवाओं को यह सोचने पर मजबूर कर सकती है कि मेहनत, अनुशासन और लक्ष्यबद्ध जीवन भी एक बुराई है। इससे न केवल मनोवैज्ञानिक अव्यवस्था बढ़ती है, बल्कि समाज में defeatism और escapism को भी बढ़ावा मिलता है।
👉 यह स्पष्ट रूप से मनोविज्ञान की अपमानजनक विकृति है, जिसे तुरंत चुनौती देना आवश्यक है।
🎓 शिक्षा संस्थानों की ज़िम्मेदारी
MANIT Bhopal जैसा प्रतिष्ठित संस्थान जब किसी असंवैधानिक और गैर-लाइसेंसी व्यक्ति को मंच प्रदान करता है, तो यह केवल एक लापरवाही नहीं, बल्कि नैतिक और कानूनी उत्तरदायित्व से मुँह मोड़ने का गंभीर उदाहरण बन जाता है। विश्वविद्यालयों और तकनीकी संस्थानों का उत्तरदायित्व केवल ज्ञान देना नहीं है, बल्कि उस ज्ञान की वैधता और प्रमाणिकता सुनिश्चित करना भी है। जिस तरह मेडिकल कॉलेज किसी झोलाछाप डॉक्टर को सर्जरी सिखाने के लिए मंच नहीं देता, वैसे ही मनोविज्ञान और नशा मुक्ति जैसे गहन विषयों पर बिना RCI लाइसेंस वाले “आचार्य” को बुलाना छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ है। जब एक अनधिकृत वक्ता अपने मनगढ़ंत और शोधविहीन तर्कों से छात्रों को गुमराह करता है, तो उसकी जवाबदेही सीधे संस्थान के कंधों पर आती है।
🔍 संस्थान और कानून की ज़िम्मेदारी
RCI एक्ट 1992 की धारा 13 और 30 के अनुसार, मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं या साइकोलॉजिकल थेरेपी केवल उन्हीं लोगों द्वारा दी जा सकती है जो पंजीकृत और मान्य डिग्रीधारी हों। इसके अतिरिक्त, Drugs and Magic Remedies Act, Indian Medical Council Act, IPC Sections 417 (cheating), 504 (insult), 505 (public mischief), और Information Technology Act की धारा 66D (online impersonation and fraud) भी इन मामलों में लागू हो सकती हैं यदि कोई व्यक्ति मानसिक रोगों और नशे से जुड़े रोगियों को गुमराह करने वाले बयान सार्वजनिक रूप से देता है। यदि कोई डॉक्टर झूठी दवा देता है तो वह medical negligence का दोषी होता है, लेकिन क्या वही जिम्मेदारी एक “आध्यात्मिक मनोचिकित्सक” पर लागू नहीं होती जो addiction को “placement लेने की लत”, “माँ का करियर के लिए कहना” जैसे सामाजिक मूल्यों से जोड़कर व्याख्या करता है?
📢 नैतिक और सामाजिक अपील
यह केवल एक संस्थान की गलती नहीं, बल्कि पूरे समाज की सामूहिक चुप्पी की भी त्रासदी है। जब समाज एक पाखंडी और अज्ञान आधारित वक्ता को “गंभीर विचारक” मान बैठता है, तो असल में वह अपने ही युवाओं के मानसिक स्वास्थ्य के साथ समझौता करता है। addiction जैसे रोगों पर लाखों अनुसंधान, FMRI स्कैन, न्यूरोट्रांसमीटर मैपिंग और संज्ञानात्मक थेरेपी पर आधारित उपचार मौजूद हैं — और ऐसे में कोई व्यक्ति यदि placement और career को addiction घोषित करता है तो यह वैज्ञानिक प्रगति का घोर अपमान है। नैतिक रूप से हम सबकी जिम्मेदारी है कि ऐसे अवैज्ञानिक और अप्रमाणिक वक्ताओं को मंच न मिले, और यदि मिले तो उसका प्रखर प्रतिरोध हो।
🚫 स्वघोषित “आचार्य” नहीं, अपभोगी हैं
आचार्य शब्द भारतीय परंपरा में एक अत्यंत पवित्र उपाधि रही है। आचार्य वह होता है जो “आचरण” से उपदेश देता है, जिसके विचारों में प्रमाणिकता हो, भाषा में संयम हो और उद्देश्य में लोक-कल्याण हो। लेकिन जब कोई व्यक्ति स्वयं को आचार्य घोषित कर ले और उस उपाधि का उपयोग केवल प्रचार, पैसा, और सामाजिक विष घोलने के लिए करने लगे, तो वह “आचार्य पद का अपभोग” (Misappropriation of the title) करता है — और वह “अपभोगी” कहलाता है।
आर्य प्रशांत, आपने आचार्य उपाधि को एक विपणन उपकरण में बदल दिया है। आपने इस पवित्र शब्द को प्रवचनों के व्यापार, आत्ममुग्धता और अधूरे ज्ञान से भरे वक्तव्यों का मुखौटा बना दिया है। आपकी भाषा वैज्ञानिक नहीं, आक्रामक है। आपके कथन RCI के न्यूरोसाइंटिफिक आधारों पर नहीं, बल्कि निजी कुंठाओं और मनगढ़ंत सिद्धांतों पर आधारित हैं।
आप addiction जैसे गंभीर न्यूरोलॉजिकल रोग को “placement की लत”, “माँ का करियर के लिए कहना” जैसे सामाजिक कर्तव्यों से तुलना करके लाखों विद्यार्थियों को गलत दिशा में धकेल रहे हैं। आपने DSM-5 जैसे अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक मानकों की पूरी तरह से अवहेलना की है। यही नहीं, आपने संस्थानों की मिलीभगत से मंचों का उपयोग अपने पाखंड को वैधता दिलाने के लिए किया है।
⚠️ अब आदेश दिया जा रहा है, निवेदन नहीं:
आर्य प्रशांत, अब आपको एक आदेश दिया जा रहा है — “आचार्य” उपाधि को तत्काल त्यागें, और जनता से सार्वजनिक माफ़ी माँगें। यह कोई निवेदन नहीं है, यह उस समाज की चेतावनी है जिसे आप लगातार गुमराह कर रहे हैं। यदि आपने ऐसा नहीं किया, तो:
🗓️ हर महीने आपके झूठे प्रवचनों और वैज्ञानिक विकृति फैलाने वाले बयानों का खुलासा किया जाएगा, प्रमाणों, DSM अध्यायों, न्यूरोसाइंस रिसर्च और कानूनी संदर्भों के साथ।
👁️🗨️ समाज अब चुप नहीं रहेगा। यदि आप “जागृति” की बात करते हैं, तो आपकी असलियत की जागरूकता भी उतनी ही आवश्यक है।
📜 निष्कर्ष
MANIT Bhopal में आर्य प्रशांत को मंच देना, केवल एक आमंत्रण नहीं था — वह पूरे भारतीय शिक्षा तंत्र की वैधानिकता, वैज्ञानिकता और नैतिकता पर प्रश्नचिन्ह था। यह घटना RCI कानून, न्यूरोसाइंस शोध, मानसिक स्वास्थ्य नीतियों और नैतिक शिक्षा की मूलभूत भावना के प्रतिकूल है। अब समय आ गया है कि हम विज्ञान की आवाज़ को बुलंद करें, और अधकचरे, झूठे, समाज-विरोधी प्रवचनों का प्रतिकार करें — ताकि आने वाली पीढ़ियाँ झूठी समानताओं और दोषपूर्ण व्याख्याओं के भ्रम में न जीएँ।

