🔻 1. प्रस्तावना: जब सफ़ेद रंग में भी वफ़ा न बचे
“सफ़ेद रंग में अगर वफ़ा होती, तो फिर नमक भी दर्द की दवा होती !”
यह शेर जितनी मोहब्बत की दुनिया में गूंजता है, उतनी ही प्रासंगिकता इसकी उस दुनिया में भी है जहाँ सफेद कपड़े, ऊँची कुर्सी, और स्पष्ट आवाज़ के पीछे छुपी हो सकती है बौद्धिक धोखेबाज़ी।
इस लेख की शुरुआत किसी के विरोध में गाली या निंदा से नहीं होती। हम उन्हें किसी परंपरागत गाली गलौज या तर्कहीन विरोध का पात्र नहीं बनाते। बल्कि यह लेख एक केस स्टडी है — एक मनोवैज्ञानिक परीक्षण। और विषय है:
👉 Pseudo Expertise — झूठे विशेषज्ञ होने की कला।
आज का युग सूचनाओं से भरा है, और भ्रमों से भी।
और ऐसे में कुछ लोग सच्चे ज्ञान की जगह ‘आत्मज्ञान’ बेच रहे हैं,
विज्ञान की जगह ‘दृष्टि’ परोस रहे हैं,
और शास्त्रों की जगह अपने ही भाषणों को अंतिम सत्य बना रहे हैं।
क्या यह सत्य का प्रचार है या एक मानसिक संरचना जिसे मनोविज्ञान में “Pseudo Expertise” कहा जाता है?
इस लेख में हम एक ऐसे व्यक्ति को नहीं, बल्कि एक “रुझान” (pattern) को समझने का प्रयास करेंगे — जिसमें कोई व्यक्ति बिना प्रमाणित विशेषज्ञता के, विशेषज्ञ जैसा व्यवहार करता है, जीवन और मृत्यु, धर्म और मन, गीता और विज्ञान — हर विषय पर अंतिम सत्य की घोषणा करता है, और फिर किसी भी प्रकार की जवाबदेही से पीछे हट जाता है।
यह लेख न किसी श्रद्धा का अपमान है, न किसी व्यक्ति का।
यह है — अपने आपको वैज्ञानिक और प्रचलित धर्म को बिना प्रमाण के खारिज करने के प्रयास का एक्सपोज़ !
यह लेख केवल एक ब्लॉग नहीं, बल्कि मानसिक, सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना की एक रिपोर्ट है।
इस विषय में हमरा यह वीडियो द्रष्टव्य है –
🔻 2. स्वघोषित आचार्य: ज्ञान या घमंड का गठजोड़?
स्वघोषित आचार्य ने हाल में यह वीडियो जारी किया है –

“अगले 40 सालों में, धर्म का जो ये रूप है — वह खत्म हो जाएगा।”
— स्वघोषित आचार्य की भविष्यवाणी
कुछ लोग जलवायु परिवर्तन की भविष्यवाणी करते हैं।
कुछ लोग अर्थव्यवस्था की।
लेकिन यहाँ एक महानुभाव हैं जो पूरे सनातन धर्म के अंत की गिनती तक बता देते हैं — 40 साल!
और वो भी कोई वैज्ञानिक, दार्शनिक या शास्त्रार्थ में पारंगत विद्वान नहीं, बल्कि एक ऐसा व्यक्ति जिसने स्वयं को ‘आचार्य’, ‘वेदांत विशेषज्ञ’, और ‘विज्ञानसंगत धर्मगुरु’ घोषित कर रखा है — बिना किसी प्रमाणिक वेदांत परिषद, शंकराचार्य परंपरा या मान्यता प्राप्त संस्थान की मान्यता के।
🧠 मनोवैज्ञानिक विश्लेषण:
यह वह बिंदु है जहाँ घोषणा, अधिकार से बड़ी हो जाती है।
धर्म का अंत कोई स्वाभाविक परिवर्तन नहीं है, बल्कि एक आक्रामक अभियान बन जाता है, जहाँ पुरानी परंपराओं को “सड़ा हुआ धर्म” और “बासी मैगी” कहा जाता है — और फिर खुद को एकमात्र विकल्प बताकर “असली धर्म का अवतार” बताया जाता है।
🔥 अब दृश्य कुछ ऐसा बनता है:
- 🙄 Gen Z को बताया जाता है कि “वो इन फालतू किस्सों पर विश्वास नहीं करते”।
- 👴🏻 बुज़ुर्गों को घोषित किया जाता है कि “वो तो बस चलते आ रहे हैं, बिना समझ के”।
- 📉 पुराने धर्म को कहा जाता है कि “ये तो विज्ञान के खिलाफ है, खत्म होने वाला है।”
- 🧞♂️ और फिर मंच पर वह प्रकट होते हैं जो कहते हैं — “मैं वही धर्म ला रहा हूँ जो स्पष्ट है, वैज्ञानिक है, और नया है!”
🤯 तो सवाल ये उठता है:
क्या किसी व्यक्ति के पास इतना बौद्धिक अधिकार है कि वह करोड़ों लोगों के धर्म को “सड़ा हुआ” कह दे?
क्या खुद को “सत्य का एकमात्र प्रवक्ता” घोषित करना कोई बौद्धिक विनम्रता है — या यह किसी मसीहाई भ्रम (Messianic Complex) का सूक्ष्म रूप है?
🎭 जब कोई कहता है:
“अगर मुझे मार भी दोगे तो भी ये धर्म खत्म हो जाएगा…”
तो यह ‘बलिदान’ की मुद्रा नहीं, बल्कि एक छुपी हुई आत्म-महत्ता की चिंगारी है, जो अक्सर पंथप्रधान मानसिकता (Cultic Psychology) में दिखाई देती है।
📚 और यही हमें इस लेख के मुख्य विषय पर लाता है:
यह कोई एक व्यक्ति नहीं है।
यह एक सोचने का तरीका है।
एक बोलने का ढंग है, जो मंच पर खड़ा होता है — और विज्ञान, धर्म, संस्कृति, उम्र और परंपरा — सबको अपने झूठे, अवैज्ञानिक और आत्मवंचना रुपी तथाकथित “ज्ञान” की तलवार से काट देता है,
…बिना किसी प्रमाण के, बिना किसी जिम्मेदारी के।
🔻 3. रिसर्च पेपर 1 का परिचय – Pseudo Expertise
🧠 शोध पत्र का शीर्षक:
Pseudoexpertise: A Conceptual and Theoretical Analysis
👨🔬 लेखक (Authors):
- Joffrey Fuhrer
- Florian Cova
- Nicolas Gauvrit
- Sebastian Dieguez
🏛️ संस्थाएं (Affiliations):
- Department of Philosophy, Swiss Center for Affective Sciences, University of Geneva, Switzerland
- Department of Psychology, University of Lille, France
- Laboratory for Cognitive and Neurological Sciences, Department of Medicine, University of Fribourg, Switzerland
📅 प्रकाशन वर्ष: 2021
📄 जर्नल: Frontiers in Psychology – Peer-reviewed, Scopus-Indexed, Q1 Journal

🔬 यह कोई व्यक्तिगत राय नहीं, बल्कि Peer-Reviewed Research है
यह शोध पत्र Frontiers in Psychology जैसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त और peer-reviewed जर्नल में प्रकाशित हुआ है।
- 📥 जमा किया गया (Submitted): जून 2021
- ✅ स्वीकृत किया गया (Accepted): अक्टूबर 2021
- 📢 प्रकाशित किया गया (Published): नवंबर 2021
इसका मतलब यह है कि इस रिसर्च को तीन महीनों तक विशेषज्ञों द्वारा जांचा-परखा गया, और केवल वैज्ञानिक गुणवत्ता एवं वैचारिक स्पष्टता की कसौटी पर खरा उतरने के बाद ही इसे प्रकाशित किया गया।
यह कोई ब्लॉग, फेसबुक पोस्ट या यूट्यूब राय नहीं है — यह एक प्रमाणिक, समीक्षित वैज्ञानिक विश्लेषण है।
🔻 4. पहली पहचान: आम जनता से वाहवाही, विद्वानों से दूरी
“Pseudoexpert is someone who seeks to be granted by nonexperts the social status typically granted to experts in domain d.”
यानि सीधा मतलब:
बिना किसी विश्वविद्यालय की डिग्री, बिना किसी वैधानिक लाइसेंस या शास्त्र-सम्मत अध्ययन के,
एक व्यक्ति जब “धर्मगुरु”, “वेदांताचार्य”, या “आध्यात्मिक मार्गदर्शक” जैसा दर्जा हासिल करना चाहता है — और वो दर्जा उसे कोई IIT, AIIMS, या संस्कृत विश्वविद्यालय नहीं देता, बल्कि यू-ट्यूब की भीड़ देती है — तो वह C1 में फिट बैठता है।
🧢 विशेषज्ञ नहीं, लेकिन एक्सपर्ट वाली टोपी ज़रूर चाहिए
- क्या Arya Prashant ने कभी वेदांत या गीता पर peer-reviewed शोध पत्र प्रकाशित किया है?
❌ नहीं। - क्या उन्हें किसी मान्यता प्राप्त संस्था (जैसे BHU, Sampurnanand, JNU Sanskrit Dept.) ने ‘Vedanta Expert’ घोषित किया है?
❌ नहीं। - फिर भी वो खुद को “एकमात्र सच्चा धर्म देने वाला” बताते हैं और बाकियों को “सड़े-गले धर्मों का समर्थक” कहते हैं।
यह वही है जो Fuhrer et al. के शोध में C1 के अंतर्गत आता है — नौसिखियों से मान्यता लेना, ताकि गुरु जैसे दिख सकें।
📺 उदाहरण:
“ये पुराना धर्म 40 साल में खत्म हो जाएगा, जो मैं दे रहा हूँ वही असली धर्म है।”
इस वाक्य में देखिए:
- न कोई शास्त्रीय संदर्भ,
- न कोई वैज्ञानिक डेटा,
- सिर्फ आत्म-घोषणा।
यानि C1 की textbook category!
🔎 जब approval scholars से नहीं, followers से ली जाए
जब कोई कहे –
“मैं जो कहता हूँ वही वेद है, प्रचलित शास्त्रों की बात तो भ्रम है।”
और फिर उसी पर तालियाँ बजती हों, चंदे आते हों, और इंस्टाग्राम reels बनती हों —
तो वह pseudoexpert वही कर रहा है जो C1 में बताया गया है —
वह “expert का status” चाहता है, लेकिन सिर्फ non-experts के applause से।
🔻 5. दूसरी पहचान: विशेषज्ञता का दिखावा
“Pseudoexpert engages in behaviors related to the novice-oriented function of experts in domain d.”
यानि:
जब कोई व्यक्ति ऐसा व्यवहार करता है जिससे लगे कि वही अंतिम authority है, तो वह C2 में फिट बैठता है।
वह क्या-क्या करता है?
- व्याख्यान देता है
- गीता की मनचाही व्याख्या करता है
- धर्म और विज्ञान दोनों पर भाषण देता है
- मानसिक रोगों पर इलाज सुझाता है
- Relationship advice देता है
- लेकिन कभी भी licensing, qualification या peer-review की बात नहीं करता।
🎭 अभिनय विशेषज्ञ का, जिम्मेदारी किसी की नहीं!
Arya Prashant क्या करते हैं?
- धर्म को विज्ञान की भाषा में बेचते हैं
- वेदांत को अपनी सुविधा से परिभाषित करते हैं
- पारंपरिक विद्वानों को “पाखंडी” कहकर नकारते हैं
- स्वयं को “Gen Z का धर्मगुरु” घोषित करते हैं
- और यह सब YouTube videos और paid seminars के ज़रिए करते हैं
लेकिन अगर उनसे पूछा जाए कि “आपकी qualifications क्या हैं?”
तो या तो मौन, या “प्रमाण से परे आत्मज्ञान” जैसा उत्तर मिलता है।
🎤 “मैं मंच पर हूँ, तो विशेषज्ञ मानो!”
C2 की परिभाषा कहती है कि pseudoexpert ऐसा व्यवहार करता है जो एक विशेषज्ञ की भूमिका निभाने जैसा है – लेकिन बिना उस भूमिका की शर्तें पूरी किए।
“मुझे कौन पढ़ाएगा?”
“मुझे किताब पढ़ने की ज़रूरत नहीं।”
“गूढ़ ज्ञान मेरे भीतर से आता है।”
🔻 6. तीसरी पहचान: अयोग्य सलाहें मुफ्त में, ज़िम्मेदारी जीरो
“A pseudoexpert is either unable to fulfill the expert’s role due to lack of knowledge/skill, or unwilling to do so due to refusal to follow the ethical norms of that role.”
यानि:
या तो ज्ञान है ही नहीं, या अगर है तो ज़िम्मेदारी उठाने की नीयत नहीं है।
🎓 “Advising without accountability” — यही है C3
- एक licensed doctor अगर गलत इलाज दे, तो उस पर medical negligence का केस चलता है।
- एक clinical psychologist अगर कोई गलती करे, तो उसे RCI Act 1992 के तहत सस्पेंड किया जा सकता है।
लेकिन…
👉 Arya Prashant क्या करते हैं?
- Depression, Guilt, Grief जैसे मानसिक रोगों पर घंटों भाषण
- महिला श्रोताओं को relationship में क्या करना है ये समझाना
- माता-पिता से कैसे व्यवहार करना है — इस पर उलझाऊ दिशानिर्देश
- धार्मिक अपराध-बोध (religious guilt) का मनोविश्लेषण
और ये सब कुछ बिना किसी clinical training, बिना किसी जिम्मेदारी, सिर्फ “आध्यात्मिक clarity” के नाम पर।
🧾 और जवाबदेही? डिस्क्लेमर डाल दो, निपट लो!
हर वीडियो के नीचे एक छोटा disclaimer होता है:
“यह जानकारी केवल शैक्षणिक उद्देश्य के लिए है।…”
यानि जब परिणाम खराब हो, तो Acharya ji की कोई जिम्मेदारी नहीं।
- आप मानसिक रूप से टूट जाएँ,
- परिवार से कट जाएँ,
- जीवन में दोषपूर्ण निर्णय लें —
तो सब आपकी गलती है, उनकी नहीं।
यही तो है C3 —
Expert की acting, लेकिन ज़िम्मेदारी का डर।
⚖️ Pseudoexpert का सबसे खतरनाक चेहरा यही है
एक आम आदमी उन्हें विशेषज्ञ मानकर guidance लेता है —
लेकिन जब परिणाम उल्टा होता है, तो
“मैं तो सिर्फ clarity दे रहा था” कहकर स्वघोषित आचार्य जी बच निकलते हैं।
ये देखिये उनका डिस्क्लेमर और उसके अंतिम पंक्तियों पर ध्यान दीजिये –

Fuhrer et al. के शोध में यही C3 है —
Either incapable, or escaping ethical accountability.
🔻 7. चौथी पहचान: असली विशेषज्ञों को खारिज कर, खुद को ही भगवान माने!
“While there are real experts available in domain d who fulfill (or would fulfill) the expert function better, the pseudoexpert still claims centrality.”
यानि:
जब समाज में वास्तविक विशेषज्ञ मौजूद हैं — जिनके पास ज्ञान, प्रमाण और अनुभव तीनों हैं — तब भी pseudoexpert उन्हें नकार कर खुद को अंतिम authority घोषित करता है।
🎓 “Clarity gang” बनाम scholarly tradition
Vedanta और Gita पर देश में अनगिनत प्रतिष्ठित विद्वान हैं:
- Swami Parmarthananda
- Swami Tattvavidananda
- Prof. Rameshbhai Oza (संस्कृत पर PhD)
- Swami Sarvapriyananda (Harvard और Ramakrishna Mission दोनों में ख्यातिप्राप्त)
इन सभी में एक चीज़ समान है:
शास्त्र-सम्मत प्रमाण, गुरु-परंपरा का आदर, और बौद्धिक विनम्रता।
अब सवाल यह है —
Arya Prashant ने इनमें से किसी एक से संवाद किया? debate किया? उनके ग्रंथों को पढ़ा?
❌ नहीं।
बल्कि कहते हैं:
“पुराने आचार्य तो भ्रम फैला रहे हैं। मैं Gen Z को सही धर्म दे रहा हूँ।”
🧠 “मैं ही अंतिम सत्य हूँ” — यही है C4 की चेतावनी
जब कोई pseudoexpert कहता है:
- “मैं ही वेदांत का मूल हूँ।”
- “बुद्ध, महावीर, कृष्ण — सबने जो कहा वो अधूरा था।”
- “मैं वो धर्म दे रहा हूँ जो आज तक किसी ने नहीं दिया।”
तो वह सिर्फ गर्वित नहीं, खतरनाक भी हो जाता है।
C4 यही चेतावनी देता है:
जब कोई खुद को सत्य का अंतिम द्वार बना ले, और बाकियों को भ्रम कहे — तब समाज को सावधान हो जाना चाहिए।
🔍 क्या किसी को अकेले “धर्म” बेचने का कॉपीराइट है?
Fuhrer et al. कहते हैं कि pseudoexpert अपनी monopoly बनाने की कोशिश करता है,
जबकि domain में बेहतर और ईमानदार विकल्प मौजूद होते हैं।
इसलिए,
जब “clarity” के नाम पर बाकी सबको “confusion” बता दिया जाए,
तो समझिए — आप C4 में प्रवेश कर चुके हैं।
🔻 8. अब देखिए, असली एंटी-साइंटिफिक कौन है!
अब तक pseudoexpert की पहचान कर ली।
अब आइए ये भी देख लें कि जिस ‘नई वैज्ञानिक धर्म’ की वो बात करते हैं — असल में वो विज्ञान के ठीक विपरीत खड़ी होती है।
पिछले कुछ सालों में विज्ञान की एक नयी शाखा का जन्म हुआ है – Neruo Theology| इसके जन्मदाता हैं न्यूरोसाइंटिस्ट डॉक्टर Andrew Newberg |




🔬 पेश है रिसर्च: Andrew Newberg की “Born to Believe” थियोरी
- Dr. Andrew Newberg — Neuroscientist, Director of Research at Marcus Institute of Integrative Health, USA
- विश्वप्रसिद्ध पुस्तक: “Born to Believe: God, Science and the Origin of Ordinary and Extraordinary Beliefs”
- न्यूरोथियोलॉजी के क्षेत्र में अग्रणी — यह विज्ञान है जो मस्तिष्क में आस्था और विश्वास की जैविक ज़रूरत को समझता है।

📖 इस शोध का मूल निष्कर्ष क्या है?
“Belief is not optional. The human brain is biologically structured to form beliefs – including religious and moral ones – to process reality meaningfully.”
यानी,
विश्वास को त्यागना “scientific maturity” नहीं, neurological dysfunction को न्यौता देना है।
🧠 Arya Prashant का क्या कहना है?
“Gen Z has stopped believing in mythological stories.”
“Traditional dharma is rotten.”
“Religious belief makes people weak.”
“मैं एक नया scientific dharma दे रहा हूँ – बाकी सब भ्रम है।”
इन बयानों को ऊपर दिए शोध के साथ रखिए —
तो साफ़ हो जाता है कि स्वघोषित आचार्य की तथाकथित clarity, actually neuropsychology के विरुद्ध है।
अब ज़रा सोचिये स्वघोषित आचार्य का यह कहना कि धर्म चालीस साल का मेहमान है कितनी अवैज्ञानिक बात है जबकि न्यूरोसाइंटिस्ट एंड्रू न्यूबर्ग कह रहे हैं कि भगवान् जाने वाला नहीं है !
दरअसल असली अवैज्ञानिक विचारधारा इन स्वघोषित आचार्य की है, न कि प्रचलित धर्म की !
⚠️ ध्यान दें: ये शोध कहता है कि…
- जो लोग अचानक परंपरागत धार्मिक विश्वास छोड़ते हैं, उनमें संदेह, अस्तित्वगत पीड़ा, निर्णय लेने की असमर्थता और अनैतिकता की दर बढ़ जाती है।
- विश्वास और नैतिकता के बीच neurological link को काट देना मानसिक असंतुलन को न्योता देना है।
और जो व्यक्ति बिना प्रमाण और योग्यता के लाखों लोगों को विश्वासविहीनता की ओर धकेल रहा हो —
वो वैज्ञानिक है या pseudo-psychological preacher?
🔻 9. श्रद्धा छोड़ने की कीमत – विज्ञान क्या कहता है?
“Arya Prashant कहते हैं कि पुरानी श्रद्धा और परंपरा ‘सड़ चुकी’ हैं, और उनका त्याग ही ‘उद्धार’ है।
लेकिन क्या वास्तव में धार्मिक विश्वास छोड़ने से व्यक्ति मुक्त होता है, या वह और गहरे मानसिक, सामाजिक और अस्तित्वगत संकट में घिर जाता है?
अब विज्ञान से पूछते हैं — जवाब चौंकाने वाला है।”
📘 शोधपत्र:
“Suffering of Life after Religious Disaffiliation: A Caring Science Study”
- ✍️ लेखकों के नाम:
Maria Björkmark (PhD Candidate),
Camilla Koskinen (Professor, University of Stavanger),
Peter Nynäs (Dean, Faculty of Psychology and Theology),
Linda Nyholm (Associate Professor, Åbo Akademi University) - 🧪 प्रकाशन: International Journal of Caring Sciences (Vol. 14, Issue 1, Jan–Apr 2021)
- 📅 Submitted: June 2021 | Accepted: October 2021 | Published: November 2021
- 🌍 यह जर्नल peer-reviewed है और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर Caring Science में मान्य है

🧠 अध्ययन का उद्देश्य:
इस अध्ययन का मकसद यह समझना था कि जब कोई व्यक्ति किसी धार्मिक परंपरा या समुदाय को छोड़ता है, तो उसके जीवन में किस प्रकार की “सफ़रिंग ऑफ़ लाइफ़” यानी जीवन की संपूर्ण पीड़ा उभरती है — मानसिक, भावनात्मक, सामाजिक और आध्यात्मिक स्तर पर।
🧩 प्रमुख निष्कर्ष:
- त्याग के बाद समाज से बहिष्कार और तिरस्कार:
धर्म छोड़ने के बाद लोग अपने ही परिवार और प्रियजनों से पूरी तरह कट जाते हैं।
उनमें “अब मेरा अस्तित्व ही नहीं बचा” जैसी भावना घर कर जाती है। - अत्यधिक अपराधबोध और शर्म:
कई प्रतिभागियों ने बताया कि उन्होंने पूरा जीवन इस अपराधबोध में बिताया कि वे पापी हैं।
धर्म छोड़ने के बाद भी ये अपराधबोध और आत्मग्लानि उन्हें सताते रहते हैं — “क्या मैंने गलती की?” - जीवन और मृत्यु दोनों का डर:
“अब मैं अकेली हूँ, न ईश्वर मेरे साथ हैं, न समुदाय” — इस डर ने कई लोगों की नींद, स्वास्थ्य, और जीवनशक्ति तक छीन ली।
किसी ने कहा: “मुझे नहीं पता था डर के बिना जीना कैसा होता है।” - मानव गरिमा का हनन:
जिन लोगों ने अपना संपूर्ण जीवन किसी समुदाय को सौंप दिया था, वे जब समुदाय ने ठुकरा दिया, तो उनके अस्तित्व की जमीन ही खिसक गई।
उनकी निर्णय लेने की क्षमता खत्म हो गई, वे अंदर से खोखले हो गए।
🧨 निष्कर्ष:
स्वघोषित आचार्य जैसे लोग जो “धर्म छोड़ दो, मुक्ति मिल जाएगी” का मंत्र देते हैं — वे गंभीर सामाजिक और मानसिक परिणामों को नजरअंदाज करते हैं।
विज्ञान यह साफ कहता है कि श्रद्धा त्याग का यह सफर अक्सर घाव, अवसाद और डर से भरा होता है — न कि जागरूकता और स्वतंत्रता से।
🔻 10. रिसर्च पेपर 3 – आत्मा का विश्वास वैज्ञानिक रूप से मन में बैठा होता है – एक मनोवैज्ञानिक शोध का प्रमाण
“Arya Prashant कहते हैं कि परंपरागत धर्म ‘सड़ा हुआ’ है, और उसका अंत ही नई चेतना है। लेकिन क्या विज्ञान वाकई ऐसा कहता है? आइए अब बिना भावुकता के शोध से पूछते हैं — कि धार्मिक विश्वास को त्यागने के बाद मनुअब हम यह सिद्ध करेंगे कि ‘आत्मा’ में विश्वास केवल धर्म या परंपरा की उपज नहीं है, बल्कि यह विज्ञान सम्मत, मनोवैज्ञानिक रूप से प्रमाणित, और गहराई से अंतःस्थ विश्वास है जो मनुष्य के बचपन में ही आकार ले लेता है।
📘 शोध का परिचय:
यह शोधपत्र Stephanie M. Anglin ने अमेरिका के Rutgers University में किया, और इसे British Journal of Social Psychology में 2014 में प्रकाशित किया गया। यह पत्रिका मनोविज्ञान की प्रतिष्ठित, पीयर-रिव्यूड (सहकर्मी-समीक्षित) पत्रिकाओं में से एक है।

🧪 मुख्य उद्देश्य:
इस शोध का उद्देश्य यह समझना था कि क्या ‘आत्मा’ में विश्वास वास्तव में तर्कसंगत होता है या यह बचपन की गहराई में बैठी हुई एक सहज प्रवृत्ति (implicit belief) होती है जो बाद में भी बनी रहती है – भले ही व्यक्ति खुद को नास्तिक या आधुनिक विचारों का मानने वाला क्यों न समझे।
🧬 प्रयोग:
- शोधकर्ताओं ने 349 प्रतिभागियों पर विशेष Brief Implicit Association Tests (B-IAT) के माध्यम से परीक्षण किया।
- उन्होंने प्रतिभागियों से यह भी पूछा कि वे 10 वर्ष की उम्र में आत्मा और जीवन के बाद के अस्तित्व (afterlife) के बारे में क्या सोचते थे और अब क्या सोचते हैं।
📊 नतीजे:
- यह पाया गया कि प्रतिभागियों के मन में आत्मा का ‘implicit belief’ उनके वर्तमान विश्वास से ज़्यादा उनके बचपन के विश्वास से मेल खाता है।
- यहाँ तक कि जो लोग खुद को नास्तिक मानते हैं, उन्होंने भी ‘आत्मा बेचने’ जैसी कल्पनाओं से असहजता दिखाई, जबकि यह सिर्फ एक खेल था।
- मृत्यु की याद दिलाने पर (mortality salience), धार्मिक और गैर-धार्मिक दोनों समूहों में आत्मा या ईश्वर जैसे विषयों पर ‘अनकहे’, सहज विश्वास उभर कर आए।
📌 गूढ़ निष्कर्ष:
- आत्मा और परलोक जैसे विश्वास मनुष्य के भीतर ‘स्वाभाविक रूप से’ जन्म लेते हैं, चाहे उसका बाद में धर्म क्या हो, या वह खुद को कितना भी वैज्ञानिक क्यों न मानता हो।
- इन विश्वासों की जड़ें बचपन की मनोवैज्ञानिक संरचनाओं में होती हैं, और ये विश्वास विकसित होते हुए भी अनजाने रूप में बने रहते हैं।
🧨 प्रश्न उठता है:
तो जो लोग कहते हैं कि आत्मा या पुनर्जन्म केवल अंधविश्वास है, क्या वे वैज्ञानिक मनोविज्ञान को भी नकार रहे हैं? क्या उन्हें यह स्वीकार नहीं करना चाहिए कि ‘आत्मा’ का विचार मनुष्य की मनोवृत्ति का हिस्सा है – जिसे हटाना किसी मानसिक अपंगता जैसा हो सकता है?
🔻 11. जब खुद को ‘वैज्ञानिक गुरु’ कहने वाला अवैज्ञानिक चित्त वाला पाखंडी निकले!
“जो व्यक्ति खुद को ‘आधुनिक, तर्कसंगत, वैज्ञानिक धर्म का प्रवर्तक’ कहे — लेकिन न तो उसके पास प्रमाण हो, न तर्क, और न ही विज्ञान से संवाद की विनम्रता —
तो क्या उसे ‘गुरु’ माना जाए या एक प्रचारक जिसकी पीठ पर विज्ञान का नकली लेबल चिपका है?”
🧪 तीन शोध पत्रों ने क्या सिद्ध किया?
- Fuhrer et al. (2021) ने pseudoexpert की परिभाषा दी — और Arya Prashant उन चारों शर्तों (C1–C4) पर खरे उतरते हैं।
- Björkmark et al. (2021) ने दिखाया कि धार्मिक विश्वास छोड़ना मानसिक, सामाजिक और अस्तित्वगत पीड़ा का कारण बनता है।
- Anglin (2014) ने सिद्ध किया कि ‘आत्मा’ में विश्वास हमारे मस्तिष्क में गहराई से बैठा होता है — और इसका खंडन स्वयं हमारी मानस संरचना के विरुद्ध है।
📉 तो फिर Arya Prashant क्या प्रचार कर रहे हैं?
- एक ऐसा “धर्म” जो आस्था को मिटाने का आह्वान करता है
- एक ऐसा “वेदांत” जो वेदों से संवाद नहीं करता
- एक ऐसा “वैज्ञानिक दृष्टिकोण” जो सिद्ध शोधों को खारिज करता है
इसलिए अब समय आ गया है कि उनके अनुयायी पूछें:
“यदि आपके पास धर्म का वैज्ञानिक रूप है,
तो आप विज्ञान की इन शोधपत्रों को पढ़कर जवाब क्यों नहीं देते?”
🔻 12. डिस्क्लेमर वाले स्वघोषित आचार्य की ज़िम्मेदारी से दूरी की गाथा
किसी डॉक्टर की सलाह से अगर मरीज की हालत बिगड़ जाए, तो उसे मेडिकल नेग्लिजेंस (IPC 337 / Consumer Act) के तहत कानूनी जवाबदेही उठानी पड़ती है।
पर अगर कोई Youtube पर बैठकर मानसिक अवसाद, मृत्यु, रिश्तों, और पागलपन पर ‘उपदेश’ दे,
और फिर डिस्क्लेमर दिखा दे कि ‘इसका असर मेरा ज़िम्मा नहीं’,
तो क्या यह एक जिम्मेदार सामाजिक शिक्षक है या बिना लाइसेंस का ‘मनोवैज्ञानिक व्यापार’?
🎙️ Arya Prashant का तरीका:
- Depression, trauma, mental breakdowns, relationships, abuse — सभी गंभीर मुद्दों पर सीधा “उपदेश”, वह भी कैमरे के सामने लाखों को।
- पर हर वीडियो के नीचे एक डिस्क्लेमर: “यह सिर्फ एक दृष्टिकोण है, निर्णय आपकी विवेकशीलता पर है। संस्था इसकी जिम्मेदारी नहीं लेती।”
⚖️ प्रश्न उठता है:
- अगर कोई डॉक्टर, साइकोलॉजिस्ट या हेल्थ कोच ऐसा बोले —
क्या उसे RCI Act, MHCA 2017 या Consumer Act के तहत नोटिस नहीं भेजा जा सकता? - तो क्या Youtube पर स्वयं को “जीवन गुरु”, “संवेदनात्मक मार्गदर्शक”, या “क्लैरिटी विशेषज्ञ” कहने वाले को ज़िम्मेदारी से छूट मिल जाती है?
📌 शोधों के अनुसार (Fuhrer et al., C3):
“A pseudoexpert is either unable or unwilling to fulfill the responsibility that comes with expert-like behavior.”
Arya Prashant की क्लिप में यही तो दिखता है —
बातें सब विशेषज्ञ जैसी, पर जिम्मेदारी शून्य!
🔻 13. IPC और MHCA की दृष्टि में यह कैसी सार्वजनिक शिक्षा है?
“जब कोई व्यक्ति लाखों लोगों के सामने मनोवैज्ञानिक और धार्मिक मुद्दों पर सुझाव देने लगे —
परन्तु खुद को डॉक्टर, लाइसेंसधारी मनोचिकित्सक या प्रमाणित धर्माचार्य न कहे,
बल्कि सिर्फ ‘आचार्य’ या ‘मार्गदर्शक’ की आड़ लेकर जिम्मेदारी से भी बचता रहे —
तो भारतीय कानून इस पर क्या कहता है?”
🧑⚖️ कानून की दृष्टि से समस्या कहाँ है?
1. Mental Healthcare Act, 2017 (MHCA):
- इस अधिनियम के अनुसार, केवल वे व्यक्ति जो Rehabilitation Council of India (RCI) या State Mental Health Authority से पंजीकृत हैं, वे ही मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी सलाह दे सकते हैं।
- Arya Prashant का कोई ऐसा प्रमाणित पंजीकरण सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं है।
- इसलिए अवसाद (depression), आत्महत्या (suicidal ideation), और मृत्यु के भय जैसे विषयों पर दिए गए उनके उपदेश कानूनी रूप से संदिग्ध हैं।
2. RCI Act, 1992:
- यदि कोई व्यक्ति बिना प्रमाणिक प्रशिक्षण और पंजीकरण के साइकोलॉजिकल गाइडेंस या कोचिंग दे रहा है, तो यह RCI एक्ट का उल्लंघन माना जा सकता है।
- इससे जुड़ा अपराध दंडनीय हो सकता है — जुर्माने से लेकर जेल तक की सजा संभव है।
3. IPC Section 337 – लापरवाही से जीवन या सुरक्षा को चोट पहुंचाना:
- अगर किसी की सलाह से कोई मानसिक, सामाजिक या शारीरिक क्षति हो,
तो यह धारा लागू हो सकती है। - Arya Prashant वीडियो में बार-बार गंभीर मानसिक मुद्दों पर सुझाव देते हैं — पर जिम्मेदारी नहीं लेते।
4. Consumer Protection Act, 2019:
- अगर कोई व्यक्ति “ज्ञान” या “मार्गदर्शन” के नाम पर सेवा देता है —
और उससे उपभोक्ता को नुकसान होता है —
तो यह उपभोक्ता अधिकारों का हनन है। - Arya Prashant की संस्था क्लैरिटी कोर्सेज़ और कार्यशालाएं चलाती है — जो उपभोक्ता कानून के अंतर्गत आ सकती हैं।
5. IPC Section 295A – धार्मिक भावनाओं को आहत करना:
- अगर कोई सार्वजनिक रूप से यह कहे कि “पुराना धर्म सड़ा हुआ है” और “यह मर जाएगा,”
तो यह धार्मिक समुदाय की भावनाओं का अपमान माना जा सकता है —
और IPC 295A के अंतर्गत दंडनीय अपराध हो सकता है।
🔍 निष्कर्ष:
Arya Prashant जिस तरह से मानसिक स्वास्थ्य और धार्मिक मुद्दों पर “गुरु-भाषण” देते हैं —
वह न केवल विज्ञान और विशेषज्ञता की अवहेलना है, बल्कि कानूनी रूप से एक संदिग्ध ज़ोन में आता है।
सच्चे मार्गदर्शक जिम्मेदारी लेते हैं।
स्वयं को “आचार्य” कहकर सलाह देना और फिर disclaimer से पल्ला झाड़ लेना —
यह ज्ञान नहीं, बल्कि गंभीर सामाजिक-नैतिक समस्या है।
🔻 14. मैं ट्रोल नहीं करता, मैं केस स्टडी बनाने का सुझाव देता हूँ
“अगर कोई कहे कि मुझे मार भी दो तो धर्म मर जाएगा —
तो उससे घृणा करने की आवश्यकता नहीं।
बल्कि लाखों मनोविज्ञान छात्र उसे पढ़ें, समझें कि कैसे कोई व्यक्ति अनजाने में ही pseudoexpert और cult नेतृत्व का मेल बन सकता है।”
📘 मनोवैज्ञानिक विश्लेषण:
Arya Prashant की विचारधारा और शैली में निम्न मनोवैज्ञानिक प्रवृत्तियाँ स्पष्ट रूप से दिखती हैं:
- छद्म-विशेषज्ञता (Pseudoexpertise):
वह स्वयं को गीता और वेदांत का विशेषज्ञ कहते हैं, पर न प्रमाण दिखाते हैं, न तुलनात्मक शास्त्रीय समीक्षा स्वीकार करते हैं।
जब उन्हें चुनौती दी जाती है, तो वह “मैं पढ़ने में नहीं लगा हूँ” जैसा बयान देते हैं। - पंथ-नेतृत्व (Cult Psychology):
अपने अनुयायियों को बताते हैं कि “सड़ा हुआ धर्म मर जाएगा,” “पुरानी कथाएँ फालतू हैं,” और “मैं ही सच्चा मार्गदर्शक हूँ।”
इस प्रकार वे परंपरागत विश्वासों को तोड़कर अपने विचारों को एकमात्र सत्य के रूप में स्थापित करते हैं — यह स्पष्ट charismatic isolation technique है। - अस्वीकृति और बचाव:
न किसी शोधपत्र का उत्तर, न आलोचनात्मक संवाद, बल्कि हमेशा अपने ‘ज्ञान’ को अंतिम घोषित कर देना — यह pseudoexpert का मूल व्यवहार होता है।
🧪 आपका कथन वीडियो में:
“हम चाहते हैं कि आप दीर्घायु हों — ताकि लाखों साइकोलॉजी छात्र आपको पढ़ें कि कैसे कोई व्यक्ति अनजाने में ही cult psychology और pseudo expertise का जीता-जागता उदाहरण बन जाता है।”
यह न केवल व्यंग्य है, बल्कि एक गहरी चेतावनी भी — कि जब कोई व्यक्ति सामाजिक प्रभाव का केंद्र बन जाए,
तो उसे सम्मान से नहीं, अध्ययन और विवेक से देखा जाए।
🔻 15. निष्कर्ष: जब clarity का नाम लेकर भ्रम फैलाया जाए तो…?
“Clarity” शब्द सुनने में सच्चाई, पारदर्शिता और समझदारी का प्रतीक लगता है।
पर जब यही शब्द किसी ऐसे तंत्र का हिस्सा बन जाए जो न वैज्ञानिक है, न शास्त्र-सम्मत, न जवाबदेह —
तब सवाल उठना ज़रूरी है:
क्या यह स्पष्टता है या सुव्यवस्थित भ्रम (systematic confusion)?
🧠 चार गंभीर समस्याएँ इस ‘शिक्षा’ में दिखती हैं:
- छद्म-विशेषज्ञता:
– न मान्यता प्राप्त प्रशिक्षण, न वैज्ञानिक प्रमाण, फिर भी गहराई का दावा। - पंथ निर्माण:
– दूसरों के धर्म को ‘सड़ा हुआ’ कहकर अपने मत को अंतिम सत्य के रूप में प्रस्तुत करना। - ज़िम्मेदारी से पलायन:
– डिस्क्लेमर लगाकर अपने ही कथनों से पल्ला झाड़ लेना। - विशेषज्ञों की अस्वीकृति:
– पारंपरिक शास्त्राचार्यों, वैज्ञानिकों और प्रमाणिक मनोविज्ञान को सिरे से नकार देना।
🔍 अंतिम विचार:
कोई भी समाज तब तक स्वस्थ नहीं रह सकता जब तक वह झूठे ज्ञान और छद्म-विशेषज्ञता के प्रति सजग न हो।
जब कोई व्यक्ति अपने विचारों को ‘ज्ञान’ कहे, पर शास्त्रों को नकारे, विज्ञान को ना समझे,
और समाज के मानसिक स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करे —
तो उस व्यक्ति को महिमा नहीं, समीक्षा दी जानी चाहिए।
“यह पोस्ट किसी व्यक्ति को गिराने के लिए नहीं,
बल्कि समाज को उठाने के लिए लिखी गई है।”